शंकर जयकिसन-97
अग्रणी गुजराती दैनिक गुजरात समाचार में शंकर जयकिसन के संगीत की श्रेणी जब प्रकाशित हो रही थी तब पाठकों की तरफ से भी मेरा हौसला बढाया जाता था. पाठकगण कभी कभी इस विषय में प्रश्न भी पूछते थे. ऐसा एक प्रश्न यह था- शंकर जयकिसन ने फिल्म संगीत में हरेक प्रकार के गीत दिये, लेकिन कव्वाली बहुत कम दी ऐसा क्यूं.
सवाल विचारप्रेरक था. मैं अपनी सोचसमज से इस प्रश्न का ऊत्तर दे रहा हुं. शायद आप भी मेरे साथ संमत हों. कव्वाली अक्सर मुस्लिम सोश्यल फिल्मों में परोसी जाती है. जैसे कि बरसात की रात, अल हिलाल या मुघले आझम. शायद इसी कारण से संगीतकार नौशाद, रोशन वगैरह को कव्वाली परोसने का अवस प्राप्त हुआ था. लक्ष्मीकांत प्यारेलाल को भी फिल्म अमर अकबर एन्थनी में ऐसा मोका प्राप्त हुआ था.
शंकर जयकिसन को ऐसी फिल्में बहुत कम मिली जिस में सही मायने में कव्वाली परोसने का अवसर मिले. फिर भी जब जहां मौका मिला इन दोनों ने कव्वाली परोसी है. संख्या की द्रष्टिसे देखा जाय तो बहुत ही कम कव्वाली दे सके हैं. कुल मिलाकर 180 फिल्मों में इन दोनों ने संगीत परोसा, अर्थात् तेरहसो से चौदहसो गीत दिये. उस में सिर्फ सात आठ कव्वाली दे पाये हैं.
इस अध्याय में शंकर जयकिसन की कव्वाली के बारे में बात करें. सब से ज्यादा लोकप्रिय और यादगार कव्वाली रामानंद सागर की फिल्म आरझू में ती. जब इश्क कहीं हो जाता है तब ऐसी हालत होती है...
अगर गोसिप लेखकों की बात मान लें तो यह कव्वाली तैयार हुयी तब शंकर और जयकिसन के संबंधो में दरार पड चूकी थी, उन के बीच मनमुटाव नहीं था. फिल्म आरजू के सभी गीत जयकिसन ने तैयार किये थे. रामानंद सागर एक कव्वाली भी इच्छते थे और यह जिम्मेदारी शंकर को सौंपी गयी तब उस ने यह एक कव्वाली के लिये एक लाख रूपये का मानधन लिया था. छः मात्रा के दादरा ताल में यह कव्वाली मुबारक बेगम और आशा भोंसले की आवाज में थी.
कव्वाली के लिये मुबारक बेगम की आवाज श्रेष्ठ थी. वैसे भी लता मुबारक बेगम के साथ गाने को तैयार नहीं थी और शारदा की वजह से वह शंकर पर नाराज भी थी. कुछ भी कहो, लेकिन मुबारक बेगम और आशाने इस कव्वाली को यादगार बना दी थी.
होगा, यह बात सौ प्रतिशत सही है या नहीं, यह तय करने का हमें कोई अधिकार नहीं है. हम सिर्फ इतना कहेंगे के आऱझू फिल्म में शंकर जयकिसन का संगीत था. इस कव्वाली के अतिरिक्त जो कव्वाली इन दोनों ने हमें दी है, उस की बात करें. शंकर जयकिसन ने कव्वाली जैसा गीत सब से पहले 1961 में फिल्म आस का पंछी में दिया था. कोलेज में छूट्टीयां होने वाली है और कथा नायक राजेन्द्र कुमार गीत शुरु करता है, अब चार दिनों की छूट्टी है और उन को जाकर मिलना है. हसरत जयपुरी की इस रचना को मुहम्मद रफी और कोरस ने गाया था.
राज कपूर की सब से महत्त्वाकांक्षी और नाकाम हुयी फिल्म मेरा नाम जोकर में भी एक गीत कव्वाली टाइप का था. इस गीत को मूकेश और आशा भोंसले ने गाया था. दाग न लग जाये, हाय दाग न लग जाये, प्यार किया तो कर के निभाना... न जाने क्यूं, मेरा नाम जोकर के दूसरे बहुत सारे गीत यादगार बने लेकिन, यह गीत ज्यादह सुनने में नहीं आता.
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मेरा नाम जोकर के पहले करीब 1967 में एक फिल्म आयी थी गुनाहों का देवता. जितेन्द्र राजश्री और महमूद इस फिल्म के कलाकार थे. यह कव्वाली आसित सेन, महमूद वगैरह पर फिल्मायी गयी थी. मुखडा था- महफिल में शमा चमकी, परवाने चले आये, अब तो नजर झुका लो...
1971 में शंकर जयकिसन ने एक ऐसा तजुर्बा किया जिस में बोलिवूड के पार्श्वगायकों के साथ गवैये भी सामिल हुए थे. फिल्म थी दुनियादारी. कव्वाली का मुखडा था- इश्क में तेरे हुए शराबी, बिन पिये ना शाम कटे, प्यास के मारे हम भी तडपे, महफिल महफिल जाम बटे...
यह कव्वाली उस्ताद अनवर हुसैन खान, ठुमरी क्वीन शोभा गुर्टु, मुहम्मद ऱफी और नसीम चोपरा की आवाज में थी. इस कव्वाली मे जो कहरवा ताल पसंद किया गया था उस ने फिल्म बरसात की रात की कव्वाली की याद ताजी करा दी थी. बरसात की रात की वह कव्वाली ना तो कारवां की तलाश है आज भी काफी लोकप्रिय है.
कव्वालीनुमा एक गीत फिल्म दो जूठ (1975 ) में था. महेन्द्र कपूर, मन्ना डे औऱ उषा मंगेशकर की आवाज में प्रस्तुत इस गीत का मुखडा था, मुहब्बत में अय दिल कहां ला के मारा...
और अंतिम कव्वालीनुमा गीत फिल्म ईन्तकाम की आग (1986) में था. इन्दिवर के शब्दों को आशा भोंसले और मुहम्मद ऱफीने गाया था. सम्हल जाओ बढे आते हैं मंडराते हुए साये...
निष्पक्ष रूप से देखा जाय तो सात कव्वाली में से चार कव्वाली या कव्वालीनुमा गीत शंकर ने दिये हैं औऱ तीन शंकर जयकिसन दोनों ने साथ मिलकर दिये हैं. एक संगीतकार की तुलना दूसरे संगीतकार से की नहीं जाती, फिर भी इतना कहना पडेगा कि शंकर जयकिसन नौशाद, रोशन या लक्ष्मीकांत प्यारेलाल जैसी कव्वाली नहीं दे पाये. हो सकता है, उन्हें ऐसा अवसर ही प्राप्त नहीं हुआ.
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