जयकिसन के बाद शंकर का सर्जन

 शंकर जयकिसन-94

दोषद्रष्टा और विघ्नसंतोषी समीक्षक अक्सर ऐसा लिखते रहे है कि जयकिसन के अकाल मृत्यु के बाद शंकर खत्म हो गये थे. उन के पास काम नहीं था और वे फहले जैसा संगीत किसी फिल्म में नहीं दे पाये थे. यह बात सरासर गलत है, इतना ही नहीं, यह बात पूर्वग्रह से की गयी है. ऐसा लिखनेवालों को शायद संगीत का मतलब मालूम नहीं है और न ही वे शंकर के सर्जन को समज पाये हैं.

सब से पहली बात यह कि सितंबर 1971 में जयकिसन का अकाल निधन होने के बाद शंकर ने अकेले ही पचपन फिल्मों में संगीत परोसा. 1986-87 तक वे  सतत काम करते रहे. यह बात महत्त्व की है. उस का महत्त्व समजना चाहिये. शंकर जयकिसन से पहले हुश्नलाल भगतराम की जोडी थी. वे सगे भाई थे. बाद में और दो भाई आये कल्याणजी आणंदजी, उन के बाद आये लक्ष्मीकांत प्यारेलाल, तत्पश्चात फिर से दो  भाई आनंद मिलिन्द और जतीन ललित.

अब सोचिये. इन जोडीओं में से जब एक का निधन हुआ या किसी कारणवश जोडी खंडित हुयी, तब अपने आप दूसरे की कारकिर्द भी खत्म हो गयी. सिर्फ शंकर ही ऐसै संगीतकार रहे जिन्हों ने जयकिसन के निधन के बाद भी पचास से अधिक फिल्मों में संगीत परोसा और उन के काम की काफी सराहना हयी.

शंकर को पहले जैसी कामियाबी क्यों हांसिल नहीं हुयी ? इस प्रश्न का उत्तर अब देता हुं. शंकर जयकिसन ने जब राज कपूर की बरसात फिल्म से काम शुरू किया तब अघिरतर फिल्में संगीतप्रधान बनती थी. गीतों में भरपुर काव्यतत्त्व रहता था. गीत और संगीत दोनों का एक मरतबा था, एक विशिष्टता थी. 

यदि ध्यान से सोचा जाय तो राजेश खन्ना के बाद अर्थात् 1970 के बाद हम जिसे मेलोडी और मधुर संगीत कहते हैं उस का सूर्यास्त होता चला ऐसा कह सकते हैं. 

गीतों में दोहरे अर्थवाले और अश्लील गीत ज्यादा आने लगे. ऐसे गीतो से अमिताभ बच्चन भी नहीं बच पाये. उन का एक गीत है- हम तो तंबु में बंबु लगा बैठे. क्या आप इस को गीत कहेंगे ? दूसरी और प्रकाश महेरा की जंजिर फिल्म से नायक (हीरो) की व्याख्या ही बदल गयी. सामाजिक कथावस्तु वाली फिल्मों का युग मानो संपन्न हो गया और एक्शन फिल्म एवम् एंग्री यंग मेन यानी गुस्सैल नायक की फिल्में ज्यादा आने लगी. ऐसे में देव आनंद, राज कपूर, वगैरह के साथ साथ बडे बडे संगीतकारों को भी काफी सहना पडा. अभिनेता फिल्म सर्जक जितेन्द्र ने उस समय कहा था कि अब नंबर वन से लेकर नंबर टेन तक सिर्फ अमिताभ बच्चन है. 

ऐसे में जब गीतो में भाववाहिता न रही और फिल्म संगीत का स्वरूप ही पूरा बदल गया तब भी शंकर नाहिंमत नहीं हुए. संगीत में माधुर्य का स्थान फास्ट टेम्पो (गतिशील ताल) ने लिया तब भी शंकर अपन पूरी सर्जनशीलता के साथ काम करते रहे. दूसरे शब्दों में ऐसा कहेंगे के भीषण बाढ के जलराशि में भी शंकर तैरते रहे. पाश्चात्य संगीत की बाढ शंकर को पराजित नहीं कर पायी.

और एक बात. एंग्री यंग मेन के जमाने में बडे बडे फिल्म सर्जक भी एकसौ साजिंदो का खर्च करने के लिये राजी नहीं थे. उन को फिल्म बनाने में लगे अपने निवेश के भी चिंता थी. ऐसे में भी शंकर काम करते रहे. और हां, शारदा के प्रति पक्षपात रहने की वजह से लताने अब शंकर को सहयोग देना बंद किया. जिस फिल्म सर्जक के साथ लता का संबंध अच्छा था वे शंकर के संगीत में भी लता से गवा लेते थे. शंकर जयकिसन को सर्वप्रथम अपने आगोश में लेनेवाले राज कपूरने भी शंकर को काम देना बंद किया.

इस सभी बातों को ध्यान में रखते हुए इस हकीकत का स्वीकार करना ही पडेगा शंकर ने अपना हौसला बनाये रखा और काम करते रहे. पचपंन फिल्मों में संगीत परोसा. वक्त ने उन को साथ नहीं दिया और माहौल पूरा बदल चूका था. आप सहमत हो न हो, मैं तो यही कहहुं गा कि ऐसे में भी वे काम करते रहे इस लिये उन को सलाम  !


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