कोइ तो रोको मेरे पियु को...

 शंकर जयकिसन-87

 


नाम में क्या रख्खा है, लोग कहते हैं, वैसे तो बात सही है. किसी का नाम हिंमतसिंघ है लेकिन वो मकडी या छीपकली से डरता है ऐसा हो सकता है.  नाम लक्ष्मी हो और घर घर कचरा पोता करती हो ऐसा भी हो सकता है... शंकर जयकिसन की बातों में यह क्या लीख रहा हुं ऐसा सवाल आप के मन मे हो सकता है. लेकिन जिस गीत की बात करने जा रहा हुं उस के साथ कुछ ऐसा ही हुआ है.

भारतीय संगीत में एक दक्षिण भारतीय (कर्णाटक संगीत) से आया राग है. बसंतमुखारी. बहुत ही खूबसुरत राग है लेकिन इस को वसंत से कुछ लेनादेना नहीं है. हकीकत में यह बहुत ही कठिन राग है. पूर्वार्ध में अर्थात् षड्ज से पंचम तक इस में भैरव का प्रभाव है और पंचम से तार सप्तक षड्ज याने कि उत्तरार्ध में भैरवी का प्रभाव है. काफी रियाझ के बाद यह राग गाया बजाया. जा सकता है. कहते हैं कि पंडित श्रीकृष्ण रातांजनकर ने इसे लोकप्रिय बनाया. यह पंडित रातांजनकर आग्रा घराने के दिग्गज आफताब-ए-मौशिकी उस्ताद फैयाझ खान के शागिर्द थे. 

शंकर जयकिसन यह राग कहां से किस के पास शीखे हमें पता नहीं है. लेकिन इन्हों ने एक बहुत ही यादगार गीत हमें दिया है अतैव हम उन के शुक्रगुजार है. फिल्म जिस देश में गंगा बहती है का यह गीत है. कथा में राका (अभिनेता प्राण) लोकगायक राजु को मारपीटकर भगा देना चाहता है क्यूं कि राजु डाकुओं को आत्मसमर्पण करने की सलाह देता है.

राकाने जहां मारा है वहां खून बहने की वजह से अपने कपोल पर पट्टी बांधकर अपना छाता, डफ और कपडे लेकर राजु डाकुओं का अड्डा छोडकर जाने के लिये नीकलता है तब उसे रोकने के लिये कम्मो (अभिनेत्री पद्मिनी ) रोते बिलखते एक गीत छेडती है. वह गीत एकाधिक कारणों से महत्त्वपूर्ण है. इस अध्याय में हम उस गीत का आस्वाद लेंगे.

राग बसंतमुखारी में स्वरबद्ध किये इस गीत में बहुत सी खूबीयां है. सात मात्रा का रूपक ताल (तीं तीं ना धींना धींना) में यह गीत निबद्ध है. दोनों तरफ डरावनी घाटियां है. बीच में से एक झील या नदी बह रही है. राजु जा रहा है और कम्मो गाना शुरू करती है, 'ओ बसंती पवन पागल ना जा रे ना जा, रोको कोइ....' लता ने अपनी पूरी ताकत इस गीत को चिरंजीव बनाने के लिये उपयोग में ली है. स्वरलगाव, शब्दों में रहे संवेदन, गले की हरकतें वगैरह लता की आवाज में महसूस होती है. 

यहां और एक बात करना जरूरी समजता हुं. शैलेन्द्र ने कवि कल्पना का जबरद्सत उपयोग किया है. अंतरे की पहली पंक्ति में लीखा है, बन के पथ्थऱ हम खडे थे सूनी सूनी राह में.. जरा गौर फरमाइये  यहां. यदि कवि ने हम के स्थान पर मैं लिखा होता तो राजु भगवान राम के बराबर हो जाता और शायद विवाद खडा हो जाता. लेकिन शैलेन्द्र ने सोचसमजककर हम शब्द दिया है. 

'बन के पथ्थऱ हम खडे थे सूनी सूनी राह में, जी ऊठे हम जब से तेरी बांह आयी बांह में.. ' भगवान राम के चरणस्पर्श से शल्या अहल्या बन गइ थी. यहां गीतकार ने चरण के स्थान पर बांह शब्द का इस्तेमाल किया है. कवि कल्पना का और एक जादु देखिये. कम्मो कल्पांत कर रही है, लेकिन कविने रुदन या कल्पांत शब्द के बदले अनोखा प्रयोग किया है, 'कहते हैं छीनकर नैंनो से काजल ना जा रे ना जा...आंसु के साथ काजल आंखो सं बह रहा है ...'

शब्दों का  ऐसा ही जादु दूसरे अंतरे में भी है. मेरे प्रेम के पराजय में तुम्हारी भी पराजय है ऐसा भाव शैलेन्द्रने प्रस्तुत किया है. 'याद कर तूने कहा था प्यार ही संसार है, हम जो हारे दिल की बाजी ये तेरी ही हार है, सुन ले क्या कहती है पायल ना जा रे ना जा...' 

करीब करीब पांच मिनट और 38 सेकंड का यह गीत है. गीत खत्म होने पर भी राजु वापस नहीं आ रहा है ऐसा देखकर कम्मो रौद्र या तांडव जैसा नृत्य शुरू करती है और डाकुओं की देवीमां के सामने अपने आभूषण फेंकना शुरू करती है. तांडव के पश्चात् राजु वापस आता दिखता है, कम्मो के चहेरे पर खुशी झलकती है, राका नाराज होता है... 

इस गीत के शब्दों को सराहें या उस की संगीत को, यह एक बहुत ही मधुर दिविधा है. वैसे भी फिल्म संगीत में बसंतमुखारी राग पर आधारित गीत बहुत ही कम है. शंकर जयकिसन ने यह गीत देकर अपनी सर्जनशीलता का बहुत ही तगडा सबूत दिया है. उन्हें लाख्खों सलाम !  

कमाल की बात तो यह है कि इस गीत की बंदिश शंकर जयकिसन के मन में दस बारह साल पहले गूंज रही होगी. आप को याद दिला दुं. फिल्म आवारा (1951-52) में नर्गिस और राज कपूर एकदूसरे से बिछडते हैं तब पार्श्वभू में ओ बसंती पवन पागल गीत की तर्ज सुनाई देती है. अर्थात् उस वक्त यह तर्ज  संगीतकारों  के पास थी. वे मौका ढूंढ रहे थे.   

    


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