शंकर जयकिसन-60
भारतीय शास्त्रीय संगीत हो या लोकसंगीत अथवा
पाश्चात्य संगीत, शम्मी कपूर समकालीन संगीत प्रवाहों से वाकिफ रहते थे. इस बात का
एक द्रष्टांत मुझे मिला है जो आप के साथ बांट रहा हुं. शम्मी कपूर की फिल्म तीसरी
मंजिल के लिये जब आर डी बर्मन को पसंद किया गया तब शम्मी कपूर और आर डी बर्मन
(पंचम) के बीच एक बैठक हुयी.
शम्मी कपूरने आर डी को आंखों से इशारा किया कि
कुछ सुनाओ. आर डी ने दिवाना मुझ सा नहीं इस अंबर के नीचे गीत का सिर्फ आधा चरण
गाया, तत्क्षण शम्मी ने हाथ के संकेत से पंचम को रोका और कहा, यह नेपाली लोकगीत
मैंने सुना है, आप के पास कुछ नया हो तो सुनाइये. अर्थात् पंचम ने जिस नेपाली
लोकगीत की तर्ज के आधार पर दिवाना मुझ सा
नहीं गीत तैयार किया था वह नेपाली लोकगीत शम्मी कपूर जानते थे. पंचम स्तब्ध हो
गये. यह घटना खुद पंचम की जीवनी में छपी है. (किताब का नाम- आर.डी. बर्मनः ध मेन
एन्ड ध म्युझिक. लेखक- अनिरुद्ध भट्टाचार्जी और बालाजी विठ्ठल. पृष्ठ-47).
अपने काम के प्रति इतनी समर्पतिता रखनेवाले
अदाकार की फिल्मों का संगीत तैयार करते वक्त संगीतकार को कितना सावधान रहना पडता
होगा इस की कल्पना आप कर सकते हैं. जयकिसन ने अपने एक साक्षात्कार में कहा था, हम
प्रत्येक सिच्युएशन (प्रसंग) के लिये तीन चार तर्ज तैयार कर लेते थे. शम्मी कपूर
अपनी पसंद की तर्ज ले लेते थे. वे अपने काम के प्रति इतने समर्पित थे कि हमें सदा
उन के लिये सावध रहना पडता था, सदा कुछ नवीन बनाना पडता था. कभीकभार ऐसा होता था
कि शम्मी के लिये बनायी हुयी तर्ज अगर उसे पसंद नहीं आयी तो वो तर्ज किसी दूसरी
फिल्म के लिये हम ले लेते थे.
जंगली के बाद शम्मी कपूर की फिल्म प्रोफेसर में
शंकर जयकिसन का संगीत था. इस फिल्म की कहानी ऐसी थी कि शम्मी कपूर को डान्स करने
का अवसर बहुत कम था. एक जैफ श्रीमंत महिला को अपनी जवान बेटियों को पढाने के लिये
किसी प्रौढ प्रोफेसर की जरूरत थी. शम्मी कपूर बेकार थे, प्रौढ का भेष लिये वह इस
लडकियों को पढाने आते हैं. महिला की एक बेटी के प्यार में पागल होते जाते हैं. तब
कुछ ऐसा होता है कि वह जैफ महिला भी प्रौढ प्रोफेसर के प्यार में पडती है ऐसी कथा
थी.
इस फिल्म मे छः गीत थे. मुहम्मद ऱफी को दो एकलगीत
(सोलो ) मिले थे. प्रेमीजनों में रूठना मनाना जैसी बाते सामान्य होती है, ऐसे ही
जजबात को पेश करता है यह गीत- खुली पलक में जूठा गुस्सा बंद पलक में प्यार जीना भी
मुश्किल हाय मरना भी मुश्किल... इस गीत की नजाकत रफी के स्वरलगाव में है. जिस
ऋजुता से रफी जीना भी मुश्किल हाय, मरना भी मुश्किल गाते हैं उस में तर्ज का असली
मजा है.
राग पहाडी की झलकवाले इस गीत को सुनते ही पता चल
जाता है कि यह गीत शम्मी कपूर के लिये बना है. इस सोलो जेसी ही पुष्प सी कोमल तर्ज
दूसरे सोलो की भी है. अय गुलबदन अय गुलबदन, फूलों की महक कांटों की चुभन, तुझे देख
के कहता है मेरा मन... सुबह के समय फूलों पर दीखते मोती समान ओसबिंदु जैसी यह
ताजगीपूर्ण तर्ज है.
शम्मी कपूर का साक्षात्कार करते हुए लेखक अजित पोपट
इन दोनों गीतों से एकदम अलग और राग आधारित एक गीत
भी इस रोमान्टिक फिल्म में शंकर जयकिसन ने दिया है. वह भी दस मात्रा के झपताल में.
(धींना धींधींना तींना तींतींना). मुहम्मद रफी और लता की आवाज में प्रस्तुत वह गीत
यह रहा- आवाज दे के हमें तुम बुलाओ, मुहब्बत में इतना न हम को सताओ..
इस गीत में सेक्सोफोन का इन्टरल्यूड और
सेबास्टियन ने जो काउन्टर मेलोडी बनायी है वह काबिल-ए-दाद है. यह गीत सदाबहार बन
गया है. शास्त्रीय संगीत नहीं जाननेवाले फिल्म रसिक भी यह गीत सुनते हुए स्थान-समय
भूल जाते हैं. जिन्हों ने ऐसा दावा किया था कि शंकर जयकिसन की यादगार तर्जों के
पीछे राज कपूर होते हैं, उनको यह याद रहे कि प्रोफेसर के गीतों मे राज कपूर कहीं
भी नहीं थे. फिर भी यह संगीत हिट हुआ.
एक साक्षात्कार में
शम्मी कपूर ने मुझ से कहा था, शंकर जयकिसन ने अपनी आदत अनुसार तीन चार तर्जें इस
गीत के लिये भी बनायी थी. न जाने क्यूं मुझे यह झपताल आधारित तर्ज ज्यादा ही पसंद
थी. मैं जानता हुं कि इस ताल की वजह से अभिनेत्री कल्पना को यह गीत के लीप
मूवमेन्ट में ज्यादा महेनत करनी पडी होगी, उपरवाले की महरबानी से यह गीत मानो कि
चिरंजीव हो गया. लोग आज भी बडे चाव से यह गीत का मजा लूटते हैं.
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