रागों की पसंदगी प्रसंगोचित रहती थी

 शंकर जयकिसन-52

 


रागा-जाझ की बात कर लेने के बाद आगे बढने से पहले हम जहां रूके थे वह बात पूरी कर लें तो अच्छा रहेगा. जैसे कि पिछले अध्यायों में मैं बता चूका हुं के उत्तर भारतीय और कर्णाटक संगीत मिलकर हमारे संगीत में 38 हजार से ज्यादा राग-रागिणी है. फिल्म संगीत का उद्देश्य आम आदमी का मनोरंजन करने का होता है. अतैव ऐसे रागों की पसंदगी की जाती है जो कि शास्त्रीय संगीत नहीं जाननेवाले आम आदमी को भी मनोरंजन मिले.

थोडे से ऐसे राग हैं जिस पर फिल्म संगीतकारों ने अधिक ध्यान दिया. उन में कई राग ऐसे भी हैं जिसे उपशास्त्रीय संगीत के लिये उचित माना गया है. जैसे कि पीलु, पहाडी, शिवरंजनी, भैरवी, वगैरह. शास्त्रीय संगीत में महफिल के लिये उचित माने गये रागों का भी फिल्म संगीत में चयन हुआ है जैसे कि मालकंस, यमन, हंसध्वनि, चारुकेशी, कीरवाणी इत्यादि.

शंकर जयकिसन के बारे में ऐसी गलत मान्यता रूढ हो गई थी कि इन्होंने सिर्फ  भैरवी और शिवरंजनी का अत्यधिक उपयोग किया है. यह मान्यता सरासर गलत है. इन दोनों ने विविध रागों का प्रसंगोचित चयन किया है. इस अध्याय में हम उस विषय में बात करेंगे. इन दोनों की सर्जन शक्ति कैसी विपुल थी उस के दो चार उदाहरण देखिये. बच्चा संगीत सीखने संगीत के वर्गो में जातै है तब संगीत शिक्षक भारतीय गांधर्व महाविद्यालय के अभ्यासक्रम के अनुसार सब से पहले बच्चे को भूपाली राग सीखाते हैं. बच्चा राग के व्याकरण से थोडी देर में परेशान होकर संगीत छोड देने का सोचने लगता है. अधिकतर संगीत शिक्षक कहते हैं कि आज के बच्चे को शास्त्रीय संगीत में दिलचस्पी नहीं है,

हकीकत यह है कि संगीत सीखाने की पद्धति गलत है. अब जरा सोचिये. बच्चे को पहले शंकर जयकिसन के यह दो तीन गाने सुनाईये- पंछी बनुं ऊडती फिरुं मस्त गगन में.. (फिल्म चोरी चोरी) और सायोनारा सायोनारा वादा निभाऊंगी सायोनारा (लव इन टोकियो). बाद में बच्चे को समजाईये कि भारतीय संगीत का परिभाषा में इसे राग भूपाली कहते हैं. इस राग में पांच स्वरों का उपयोग होता है- सा रे ग प और ध. मैं मानता हुं कि बच्चा जीवनभर राग भूपाली नहीं भूलेगा. इसी तरह दूसरे रागों की तालीम भी दि जा सकती है.

आप देखिये कि शंकर जयकिसन ने भूपाली राग में कैसे सरल और आसानी से गा सकें ऐसी बंदिशें दी है. शंकर जयकिसन ने भूपाली राग में पांच छः गीत दिये हैं. एक ही राग होने पर भी सभी गीतों के ताल और जजबात अलग हैं. अपनी ईच्छा से गृहत्याग करेवाली युवती अपनी आझादी को इस गीत में व्यक्त करती है- पंछी बनुं ऊडती फिरुं मस्त गगन में... दूसरी और फिल्म आम्रपाली का यह गीत देखिये- नील गगन की छाँव में दिन रैन गले से मिलते हैं, दिल पंछी बन ऊड जाता है, हम खोये खोये रहते हैं... इस तर्ज में एक प्रकार की ऊदासी और गमगीनी है. पियु के विरह में नायिका अपनी ऊदासी इस गीत के द्वारा प्रस्तुत करती है. गीत के शब्द पूरे होने पर लताजी जिस तरह आलाप लेती है उस में गमगीनी और भी घट्ट होती है.      

इस दोनों गीतों से एकदम अलग जजबात अपने पियु से दूसरे दिन मिलने का वादा कर रही युवती के मनोभाव लव इन टोकियो के गीत में व्यक्त हुए हैं. सायोनारा सायोनारा वादा निभाऊंगी सायोनारा ईखलाती और बलखाती कल फिर आऊंगी सायोनारा... और इसी राग में फिल्म दिवाना के लिये नायक के मनोभावों को इस तरह व्यक्त किये हैं- अय सनम जिस ने तुझे चांद सी सूरत दी है, उसी मालिक ने मुझे भी तो मुहब्बत दी है...

मजा यहां है, राग एक ही है, ताल और जजबात अलग अलग है. पंछी बनुं ऊडती फिरुं में खेमटा ताल है, नील गगन की छाँव में और सायोनारा में  कहरवा है और अय सनम जिस ने तुझे में छः मात्रा का दादरा है. एक भी तर्ज एकदूसरे से जरा भी मिलती झुलती नहीं है. हरेक गीत और उसकी तर्ज का अनोखा अंदाज है, अनोखा सौंदर्य है. चारों गीत हिट हुए हैं. पहले तीन गीत लता की आवाज में और चौथा गीत मूकेश की आवाज में है.

पांच छः साल के बच्चे को जिस राग से संगीत का परिचय कराया जाता है उस राग में शंकर जयकिसन ने जिस प्रकार का वैविध्य और माधुर्य परोसा है उस की जितनी तारीफ करो, कम है.

  


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