शंकर जयकिसन का अनोखा तजुर्बा- रागा जाझ स्टाईल

 शंकर जयकिसन-51

 


पिछले अध्याय में हमने देखा कि फिल्म संगीत में पहले कभी किसीने नहीं किया था ऐसा एक अजोड तजुर्बा शंकर जयकिसन ने अपनी कारकिर्द के उत्तरार्ध में किया. यह एक बहुत बडा जोखिम था क्यूं कि लक्ष्मीकांत प्यारेलाल और आर डी बर्मन जैसे युवा संगीतकारों के साथ एक तरफ स्पर्धा चल रही थी और दूसरी और यह एक अनोखा प्रयोग था.

उस प्रयोग में शंकर जयकिसन ने ऐसी जबरदस्त कामियाबी हासिल की की पूरा फिल्मोद्योग और संगीत की दूनिया भोंचक्की बनकर देखती रही. वह प्रयोग था रागा जाझ स्टाईल.

हो सकता है, यह प्रयोग की कल्पना शंकर जयकिसन को पंडित रविशंकर के तजुर्बे से मिली हो. पिछले अध्याय में हमने देखा कि भारतीय संगीत के प्रचार के लिये अमरिका में पंडित रविशंकर ने क्या किया था. भारतीय संगीत के राग-रागिणी की छोटी छोटी धूनें तैयार कर के पंडित रविशंकर ने अमरिकी संगीत रसिको को भारतीय संगीत का परिचय कराना शुरू किया. वे जो काम अमररिका में करते थे वही काम हमारे फिल्म संगीतकार यहां सालों से कर रहे थे. ढाई तीन मिनट के गीत में भारतीय राग-रागिणी का आधार लेकर फिल्म संगीतकार बंदिशें बनाते थे. अतैव रागा जाझ का तजुर्बा शंकर जयकिसन के लिये मुश्किल नहीं था.

शंकर जयकिसन ने ग्यारह रागों को चुना और प्रत्येक राग की पांच पांच छः छः मिनट की धूनें तैयार की. ऐसा लगता है कि पहले वे सुबह से रात तक के रागों का चयन करना चाहते थे. लेकिन बाद में वह विचार त्यागकर दूसरा प्रयोग किया. भारतीय राग को पाश्चात्य साज और ताल में प्रस्तुत करने का यह अनोखा-अनूठा प्रयोग था. इस प्रयोग करते वक्त इन दोनों ने कितना गहरा विचार किया होगा आप समज सकते हैं.

शंकर जयकिसन के वाद्यवृन्द में एकसौ साजिंदे थे. इस प्रयोग के लिये इन्हों ने सिर्फ दस ग्यारह साजिंदे पसंद किये. यह काम अतिशय विकट था क्यों कि एक साज के साजिंदे को लेने पर उसी साज के दूसरे साजिंदे को बूरा लग सकता था. सिर्फ एक ही साज लीजिये. तबलेवादकों में पंडित सामता प्रसाद, ऊस्ताद अब्दुल करीम, सत्तार, श्रीकांत वलवणकर, पंडित रमाकांत मोरे वगैरेह थे. उन में से शंकर जयकिसन ने इस प्रयोग के लिये रमाकांत मोरे को पसंद किया. दूसरे साजों के बारे में भी इसी तरह ही चयन किया. कम से कम टेक में उत्तम रेकोर्डिंग करने का उन का आयोजन था. 

सुबह के राग मियां की तोडी से इस आल्बम का आरंभ होता है. ऊस्ताद रईस खान ने सितार पर राग तोडी छेडा. पंडित रमाकांत मोरे ने तबले पर और लेस्ली गोडिन्हो ने ड्रम पर रईस खान की संगत की. रईस खान के पिता चोटि के सितारिये और सूरबहार वादक थे और माता अच्छी गायिका थीय. अतैव रईस खान के सितार वादन में तंतकारी और गायकी का समन्वय है. इस आल्बहम में राग तोडी अद्भुत रूप से जमावट करता है.

राग तोडी में सितार के साथ बांसुरी, सेक्सोफोन और बास गिटार भी अपना अपना प्रदान करते हैं. तोडी के बाद और एक प्रातःकालीन राग भैरव आता है. भगवान शिव ने राग भैरव बनाया है ऐसा विद्वानों का मानना है. हमने राग भैरव में फिल्म जागते रहो का एक दिव्य गीत सुना है. संगीतकार सलिल चौधरी ने भैरव में निबद्ध किये इस गीत को लताने गाया है. जागो मोहन प्यारे... राग तोडी की तरह राग भैरव में भी सितार मुख्यतः रही.

तत्पश्चात् शंकर जयकिसन ने अलग ढंग से बंदिशें बनाइ ऐसा कह सकते हैं. भारतीय संगीत में उत्तर भारतीय और कर्णाटक संगीत मिलकर तालों का जबरदस्त वैविद्य है. नियमित तालों के अतिरिक्त नव मात्रा का, 11 मात्रा का, 13 मात्रा का- इस तरह बहुत से विकट ताल है. उस में भी हरेक ताल के कायदे और तिहाईयां आती है, जैसे कि किटतक गदिगन धा, किटतक गदिगन धा, किटतक गदिगन धा.... पाश्चात्य संगीत में ऐसा वैविध्य कम है. अक्सर चार और तीन मात्रा के ताल ज्यादा बजते हैं. शंकर जयकिसन ने भी चार और तीन मात्रा के पाश्चात्य ताल पसंद किये हैं.

तोडी और भैरव के बाद आता है मालकंस (मन तडपत हरि दर्शन को आज, बैजु बावरा, संगीत नौशाद). उस के बाद आता है कलावती (कोइ सागर दिल को बहलाता नहीं, दिल दिया दर्द लिया, नौशाद), तिलक कामोद (हम तेरे प्यार में सारा आलम खो बैठे, दिल एक मंदिर, शंकर जयकिसन), मियां मल्हार (भयभंजना सुन... बसंत बहार), बैरागी (गम उठाने के लिये मैं तो जीए जाउंगा, मेरे हुजूर), जैजैवंती (मनमोहना बडू जूठे, सीमा), मिश्र पीलु (मुरली बैरन भई रे, नई दिल्ही), शिवरंजनी (जाने कहां गये वो दिन, मेरा नाम जोकर) और भैरवी (सुनो छोटी सी गुडिया की, सीमा).

इस ग्यारह रागों को जाझ संगीत की स्टाईल में पेश करने में ऊस्ताद रईस खान, पंडित रमाकांत मोरे, लेस्ली गोडिन्हो के उपरान्त एडी ट्रेवास (बास गिटार), एनिबल केस्ट्रो और दिलीप नाईक (ईलेक्ट्रिक गिटार) और लुसिला पचैको (पियानो) ने महत्तवपूर्ण प्रदान किया. सुमंत राज बांसुरी पे थे, मनोहारी सिंघ ने सेक्सोफोन बजाया और ज्हॉन परेरा ने ट्रम्पेट छेडा.

इस आल्बम का म्युझिक एरेंजिंग सेबास्टियन ने किया था. शुरू में तबल की तिहाई बजती है जो कि शंकर जीने तैयार की थी. आप सच मानिये, यह आल्बम गरमा गरम पकौडे की तरह बिक गया और पूरी दुनिया में तहलका मचा गया. अमरिका में जा बसे पंडित रविशंकर, ऊस्ताद अली अकबर खान और वायोलिनवादक यहूदी मेन्युहीन ने भी  इस आल्बम को बडे प्यार से सराहा.      

यह आल्बम वास्तव में शंकर जयकिसन संगीत की दुनिया में हो रही हलचल से कितने वाकिफ रहते थे उसका भी सबूत है. अमरिका योरोप में फ्यूझन नाम से पूरब-पश्चिम के संगीत का समन्वय हो रहा था. शंकर जयकिसन ने यह भी साबित किया कि वे फ्यूझन संगीत में भी माहिर हैं. फिल्म संगीत का भरपुर काम रहते हुए इन्हों ने यह आल्बम बनाया और अपूर्व कामियाबी हासिल की. हम इस आल्बम के संदर्भ में ऐसा भी कह सकते हैं कि शंकर जयकिसन अपने जमाने से बहुत आगे की सोच सकते थे. भविष्य में संगीत कैसा होगा उस की कल्पना वे कर सकते थे. अपने सभी समकालीन संगीतकारों में किसी को भी ऐसा आल्बम करने की कल्पना क्यूं नहीं आयी ?  यह सोचने जैसी बात है. अगर जयकिसन का अकाल निधन नहीं होता तो शंकर जयकिसन ऐसे और तजुर्बे भी कर सकते थे.

  


  


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