फिल्म संगीत के ईतिहास में अजोड प्रयोग

 शंकर जयकिसन-50

 


फिल्म बसंत बहार के गीतों का आस्वाद कराने के बाद शंकर जयकिसन के राग आधारित अन्य गीतों की बात करने का आयोजन था, लेकिन फिल्म संगीत के पुराने अभ्यासी चंद्रशेखर वैद्य का एक सुझाव आया जो मुझे ज्यादा पसंद पडा क्योंकि वैद्यने जिस विषय का सुचन किया उस के बारे में पिछले सात आठ दशक में किसी भारतीय लेखक ने कुछ भी लीखा नहीं है.

पहली टॉकी अर्थात् बोलती फिल्म आलमआरा 1931 में आयी. तब से लेकर अब तक इस विषय में किसी ने क्यूं कुछ लीखा नहीं है यह प्रश्न विचारप्रेरक है. शंकर जयकिसन के इस प्रयोग के बारे में कुछ लिखने से पहले एक और बात समझ लेनी उचित समजता हुं. 1950 के दशक के उत्तरार्ध में पंडित रविशंकर, ऊस्ताद अली अकबर खान और ऊस्ताद अल्ला रख्खा फिल्म संगीत छोडकर शास्त्रीय संगीत की सेवा में नीकल पडे और अमरिका तथा योरोप की और चले. अमरिका-योरोप के प्रवास दौरान विश्वविख्यात पाश्चात्य वायोलिनवादक यहूदी मेन्युहीन की पंडित रविशंकर से मुलाकात हुयी. यहूदी भारतीय संगीत से बहुत ही प्रभावित हुए और आपने भारतीय संगीत को प्रशांत महासागर (पेसिफिक ) से भी अधिक गहरा बताया. प्रशांत महासागर अपने केन्द्रीय विस्तारमें 12 हजार फिट गहरा है. 



यहूदी मेन्युहीन ने पंडित रविशंकर और ऊस्ताद अल्ला रख्खा के साथ एक रिकार्ड बनायी जो कि बहुत शीघ्र ही बिक गई. यहूदीने अपने हजारों शागिर्दों को बताया कि यदि आप को संगीत और अध्यात्म का समन्वय करना है और ध्यान करना है तो भारतीय संगीत पहले सीखो. आपने यह भी कहा कि हम पाश्चात्य संगीत के साधक कागज पे लीखा हुआ औरों का संगीत बजाते हैं और हमारा संगीत सामूहिक है जब कि भारतीय संगीतय वैयक्तिक है, सिर्फ एक पंडित भीमसेन जोशी या पंडित हरिप्रसाद चौरसिया अकेले तीन चार घंटे तक रसिकों को अभिभूत कर सकते हैं. भारतीय संगीत साधक अपनी कल्पना का उपयोग कर के किसी राग रागिणी को घंटो तक प्रस्तुत कर सकते हैं.

इसी प्रवास के दौरान जगप्रसिद्ध बीटल्स जूथ के संगीतकार गिटारवादक और गायक ज्योर्ज हेरिसन पंडित रविशंकर के शागिर्द हुए और आपने पंडितजी को  अनुरोध किया कि आप भारतीय संगीत हमारे लोगों के सामने प्रस्तुत कीजिये. इसी सिलसिले में पंडित रविशंकर और ऊस्ताद अली अकबर खान अमरिका में बस गये और भारतीय संगीत कि तालीम देने लगे. उन्हों ने प्राचीन गुरुकूल जैसी संगीतशाला की स्थापना की.   

पंडित रविशंकर ने सोचा कि शुरू में अगर हम दो ढाई घंटे का संगीत प्रस्तुत करेंगे तो शायद अमरिकी प्रजा को आकर्षित नहीं करेगा. उन्हों ने प्रत्येक राग की छोटी छोटी बंदिश तैयार की और उसे आरंभ में द्रुत लय में प्रस्तुत करने लरगे.

इतनी पूर्वभूमिका के बाद हम शंकर जयकिसन के प्रयोग की बात पर लौट रहे हैं. 1960  के दशक के उत्तरार्ध में शंकर जयकिसन ने जब यह प्रयोग किया तब लक्ष्मीकांत प्यारेलाल और राहुल देव (आऱ डी ) बर्मन जैसे युवा संगीतकार भी अपना स्थान फिल्म संगीत में बना चूके थे. दूसरी और शंकर जयकिसन की कारकिर्द का यह संध्याकाल था. फिर भी उन्हों ने यह विशिष्ट प्रयोग किया और जबरदस्त कामियाबी हासिल की.

 जिस तरह पंडित रविशंकर ने भारतीय राग रागिणी की छोटी छोटी बंदिशें बनाकर अमरिका-योरोप के संगीत रसिकों के सामने प्रस्तुत की, ठीक उसी तरह एक प्रयोग शंकर जयकिसन ने किया.

  


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