शंकर जयकिसन-45
कन्न्ड ऊपन्यास हंसगीती का कथानक कर्णाटक संगीत के धुरंधर कलाकार बी (अर्थात् भैरवी) वेंकटसुबैयाह के जीवन पर आधारित थी ऐसा दावा किया गया था. यह संगीतकार 18वी शताब्दी में हो गये. कथानक में हकीकत और कल्पना दोनों का मिश्रण किया गया था. फिल्म बसंत बहार में भारत भूषण के किरदार को देखने पर एक प्रकार की अनुकंपा महसूस होती थी.
जैसे कि पिछले अध्याय में मैंने बताया, यह फिल्म धूंआधार नहीं चली थी लेकिन इस का संगीत खूब सराहा गया था. शहनशाह अकबर के दरबार में नौ रत्न थे. इस फिल्म के नौ गानों को नवरत्न कहकर उस की प्रशंसा हुइ थी. इस फिल्म के गीतों की झलक देना उचित समजता हुं. केतकी गुलाब जुही गीत की बात पिछले अध्याय में की है. अब आगे बढते हैं.
संत तुलसीदास जी के रामचरित मानस में शबरी का पात्र है जो धीरज रखकर भगवान राम की प्रतीक्षा कर रही है और रोज ताजे बेर लाकर चखकर मीठे बेर अलग रखती है. बसंत बहार में मुहम्मद ऱफी की आवाज में शबरी की प्रतीक्षा जैसा एक अद्भुत गीत है. वैसे तो इस गीत को भैरवी में स्वरांकित कर सकते थे लेकिन शैलेन्द्र के शब्दों में भक्त हृदय का जो तलसाट है उसे व्यक्त करने के लिये शंकर जयकिसन ने एक अनोखा प्रयोग किया है.
शास्त्रीय संगीत में राग पीलु ज्यादातर उपशास्त्रीय रचनाओं के लिये उपयुक्त होता है जैसे कि चैती, होरी, दादरा या ठुमरी. यहां शंकर जयकिसन ने राग पीलु में यह भक्तिगीत स्वरांकित किया है- कब लोगे खबर मोरी राम... बडी देर भयी बडी देर भयी... भक्त के हृदय की तलसाट को यहां व्यक्त किया है. कहरवा ताल में स्वरों का इस तरह संयोजन किया गया है कि सुननेवाले भी गद्गद होय जायें. यह भक्तिगीत ठीक ठीक द्रुत लय में है.
इस की तुलना में और एक गीत थोडे ठहराववाले कहरवा में निबद्ध है. मजा इस बात का है कि यह गीत भी राग पीलु में है. यह गीत मन्ना डे की आवाज में है. इस गीत में भी भक्ति है, यहां आत्मनिवेदन है. सूर ना सजे क्या गाऊं मैं... वैसे इस गीत में पीलु के अतिरिक्त और रागों की मिलावट भी है, अपितु पीलु मुख्य है. फिल्म की कथा में ऐसा प्रसंग है कि गायक को सिंदूर पीलाकर उस की आवाज को खतम करने की कोशिश की गइ है. गायक अपने मन की वेदना को वाचा दे रहा है...
यह गीत भी शैलेन्द्र की रचना है. स्वरांकन ऐसा है कि पूरा भावविश्व हमारी आंखों के सामने खडा हो जाता है. उस में भी अंतिम अंतरे में गीतकार ने कमाल के शब्दों को देह दिया है- संगीत मन को पंख लगाये, गीतों से रीमझीम रस बरसायें, स्वर की साधना परमेश्वर की... मन्ना डे मन को पंख लगाये शब्दों को जिस तरह प्रस्तुत करते हैं, हमारा मन भक्तिरस से भर जाता है...
दो गीत. दोनों राग पीलु में, दोनों का भावविश्व अलग और एक ही राग होते हुए भी दोनों गीत एकदूसरे से काफी भिन्न. यह जादु शंकर जयकिसन का है.
प्रातःकालीन एक राग स्वरसम्राट तानसेन ने बनाया है ऐसी लोकोक्ति है. वह है राग मियां की तोडी. यहां मुहम्मद रफी की आवाज में एक गीत राग मियां की तोडी में है. (वैसे फिल्म बैजु बावरा में भी एक गीत राग मियां की तोडी में थी- ईन्सान बनों करलो भलाई का कोई काम... वह गीत खेमटा ताल में था.) यह गीत अद्धा के नाम से प्रसिद्ध और सोलह मात्रा के तीनताल में है. रफी ने दिल से जमावट की है. दुनिया न भाये मोंहे अब तो बुला ले, चरणों में चरणों में.... संगीत के विद्वान राग तोडी को कारुण्य प्रधान राग कहते हैं. यहां स्वरांकन में कारुण्य प्रगट होता है और सुननेवाला उस में खो जाता है.
हम सब जानते हैं कि शंकरजी स्वयं दादु तबलावादक थे. कौन से गीत में कौन सा ताल लिया जाय उस का निर्णय जयकिसन के साथ मिलकर किया जाता था और प्रत्येक गीत का अपना एक निराला लय बनता था. यहां अद्धा ताल गीत को नया परिमाण बक्षता है
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