शंकर जयकिसन-27
बात 1980 के दशक की है. प्रसिद्ध पार्श्वगायिका आशा भोंसले योरोप के प्रवास से लौटी थी. पत्रकारों से बात करते हुए आशाने एक नयी बात कही. आप ने कहा कि मैंने बॉय ज्योर्ज नाम के चोटि के विदेशी गायक के साथ एक आल्बम बनाया है. लंडन में मुझे एक विशिष्ट अनुभव हुआ. यह हमारे लिये महत्त्वनी बात है.
हुआ युं कि एक गीत गाते समय आशा से बहुत ही मामूली भूल हो गई. बाद में यह भूल ध्यान में आने पर आशा ने साऊन्ड एंजिनियर को कहा कि यह गीत पुनःमुद्रित करें तो अच्छा. साऊन्ड एंजिनियरने पूछा, क्यूं क्या बात है ? आशा ने अपनी भूल के बारे में बताया. उस निष्णात ने कहा, बस, इतनी सी बात है. आप फिक्र न करें. मैं गाना बजाता हुं. गीत के साथ में परदे पर नंबर आयेंगे. भूल कहां हुयी है वह आप मुझे नंबर के जरिये बताईये.
मैं सुधार कर लूंगा. गाना बजने लगा. जहां सुधार करना था वह सूर आशाने बताया. साऊन्ड एंजिनियर ने तुरंत आधुनिक तकनीक के जरिये उसे सुधार लिया और पुनः बजाकर सुनाया. भूल सुधर गई थी. यह बात बताकर आशा ने कहा, आनेवाले समय में हमें शास्त्रीय संगीत की तालीम लेकर गाने वाले मुहम्मद रफी या मन्ना डे जैसे गायकों की जरूरत नहीं रहेगी. कोइ भी आदमी कुछ भी गा लेगा और आधुनिक तकनीक के जरिये उसे कम्प्युटर में सुधार लिया जायेगा. संगीत के लिये य़ह तकनीक विघातक साबित हो सकती है.
आज तो हमारे बीच एक ऐसा यंत्र भी उपलब्ध हो गया है जिस की सहाय से किसी कलाकार की आवाज पैदा की जा सकती है. किसी एक भी आम आदमी से गीत गवा लो. उसे कम्प्युटर में डालो और ऐसा संयोजन करो कि सुनने वाले को ऐसा एहसास होगा कि यह गीत किशोर कुमार या हेमंत कुमार ने गाया है. यह अति-आधुनिक तकनीक संगीत के लिये उपकारक नहीं है ऐसा संगीत के विद्वानों का कहना है.
इस घटना का जिकर करने का एक उद्देश्य है. शंकर जयकिसन फिल्मों में संगीत परोसने आये तब बहुत ही पुरानी तकनीक थी. साउन्ड प्रूफ रेकोर्डिंग रुम उपलब्ध नहीं थे, सिर्फ एक माईक्रोफोन था. ऐसे में गायक-गायिका और एकसौ साजिंदे थे. गायक गायिका दबे पांव आते थे, अपनी पंक्ति गाकर वैसे ही दबे पांव खिसकते थे और साजिंदे दबे पांव आकर अपना हिस्सा बजाकर फिर से दबे पांव खिसकते थे. गीत ध्वनिमुद्रित करते समय कितनी तकलीफें ऊठानी पडी होगी उस का खयाल आज की पीढी के बच्चों को कभी नहीं आ सकता. इतनी पुरानी और कालबाह्य तकनीक होते हए भी शंकर जयकिसन के गानें सुनने पर ऐसा लगता है जैसे आधुनक तकनीक का विनियोग कर के इन दोनों ने संगीत परोसा है.
आज तकनीकी विद्या इतनी आधुनिक हो गयी है कि डेढ सौ या दौसो ट्रेक पर रेकोर्डिंग होती है. गायक अपनी सुविधा अनुसार आकर गा लेता है. साजिंदे बाद में अलग अलग आकर बजा जाते हैं और अंत में साऊन्ड एंजिनियर मिक्सींग कर के गीत को आप के सामने प्रस्तुत करता है.
कांच के टुकडे, डफली, खंजरी, मंजिरे और दूसरे वाद्यों का कलात्मक विनोयग कर के शंकर जयकिसन ने जो काम कर दिखाया उसका पूर्णरूप से विकसित स्वरूप बाद के दशकों में आर डी बर्मन जैसे संगीतकारों में नजर आता है. इस का मतलब यह हआ कि शंकर जयकिसन अपने समय से बहुत आगे थे. 1950 के दशक में इन दोनों ने अत्यंत पिछडी हुई तकनीक होते हुए भी जो काम कर दिखाया उसी की जितनी तारीफ करें वह कम है. आप को क्या लगता है ?
इन दोनों की कारकिर्द का मध्याह्न था उस वक्त इन्हों ने रागा जाज नाम का एक अनोखा और बेमिसाल तुजुर्बा किया था. इस में भारतीय संगीत के विविध राग-रागिणी को योरोपीय वाद्यों के जरिये प्रस्तुत किया था. यह आल्बम गरमागरम आलुवडे की तरह पूरी दुनिया में बिक गया था और चारों और तहलका मचा दिया था. हम उस आल्बम की भी बात करेंगे. आज के युग में ऐसे तजुर्बे के फ्युझन कहा जाता है. ऐसा फ्युझन इन दोनों ने 1960 के दशक के उत्तरार्ध में किया था. अतैव मैं मानता हुं के यह दोनों अपने समय से काफी आगे थे.
Comments
Post a Comment