शंकर जयकिसन के चाहनेवालो के नाम एक प्यारभरा संदेश
कलकत्ता निवासी मेरे दोस्त और शंकर जयकिसन के संगीतप्रेमी सुदर्शन पांडेजीने मेरी लिखी हुई शंकर जयकिसन श्रेणी के थोडे से एपिसोड्स आप के सन्मुख प्रस्तुत किये. बाद में उनकी तबियत ठीक नहीं होने पर वे आगे नहीं बढा चूके. अब मैं आप के सामने यह पुनः प्रसारित करने जा रहा हुं. प्रति सप्ताह एक नया एपिसोड आप के सामने प्रस्तुत करता रहुंगा. धन्यवाद.
शंकर जयकिसन-14
यह किस्सा सही मायने में विस्मयजनक है. पेशे से एक सहकारी बेंक के मेनेजर और शौक से साहित्यकार एक सज्जन की बात है. गुजराती भाषा में उन का बहुत बडा नाम है. ढेर सारे पारितोषिक और एवोर्डझ् आपने पाये है. साथ ही यह सज्जन फिस्म संगीत के स्वर्णयुग के भी दिवाने हैं. उन का नाम है श्री रजनीकुमार पंड्या. 1980 के दशक में आप की पोस्टिंग दक्षिण गुजरात के एक कस्बे में हुयी थी. एक दिन किसी ने उन से कहा कि आप जानते हैं संगीतकार जयकिसन इसी प्रदेश के वांसदा गांव के रहनेवाले थे.
इतना सुनकर यह सज्जन को रोमांच हुआ. एक शाम बेंक का काम नीपटाकर पंड्याजी अपनी कार में चल पडे वांसदा की और. घंटो भर की तलाश के बाद भी जयकिसन का पता नहीं मिला. हां, किसी ने कहा कि जयकिसन का एक भांजा वलसाड में चश्मे की दुकान चलाता है. दुकान का नाम भी जय ओप्टिक्स है. पंड्याजी वलसाड की और चल पडे.
जयकिसन का भांजा क्या मिला, पंड्याजी को मानो कुबेर का खजाना मिल गया. वह लडका पंड्याजी को लेकर अपने घर ले गया और अपनी माताजी से परिचय कराया. उन की माताजी अर्थात् जयकिसन की बहनने पंड्याजी को जयकिसन के बारे में विश्वसनीय जानकारी दी. उस जानकारी संक्षेप में प्रस्तुत है.
बचपन में जयकिसन को बटुक कहते थे. जयकिसन इस छोटे से कस्बे में जिस संगीत टीचर से संगीत सीखे ऊस बुझुर्ग संगीत शिक्षक से भी बात हुयी. वांसदा के राजपरिवार के लोगों से भी बात हुयी. शनैः शनैः जानकारी बढती चली. पंड्याजी की खुशी का ठिकाना न रहा. उन्हों ने सारी जानकारी को काट छांट कर, सभी जानकारी के आधार पर एक विस्तृत लेख तैयार किया और गुजराती भाषा के प्रमुख दैनिक संदेश में अपने स्तंभ झबकार (चिनगारी) में प्रस्तुत किया. फिर क्या कहैं ? जयकिसन के लाखों चाहकों ने इस लेख की प्रशंसा की, पंड्याजी को ढेर सारे मुबारकबादी के खत मिले. जयकिसन के बारे में इतनी सारी और इतनी विश्वसनीय जानकारी पहले कभी किसी के पास नहीं थी. पंड्याजी का परिश्रम सार्थक हुआ.
ऐसा क्युं हुआ ? समजने जैसी बात है. शंकर जयकिसन के संगीत के लाखो दिवाने हैं. लेकिन बहुत कम लोगों को इन दोनों संगीतकारों के बारे में नीजी जानकारी होती है. किस संगीतकार का जन्म कहां हुआ, उस का बचपन कैसा था, संगीत की तालीम कहां से हांसिल की, कितनी पढाई कहां की इत्यादि बातें किसी को मालूम नहीं होती है. संगीतप्रेमी लोग सिर्फ संगीत का लुत्फ लेते हैं. उन को संगीतकार की नीजी बातों में दिलचस्पी नहीं होती है. पत्रकार और साहित्यकार को ऐसी बातों में दिलसच्पी होती है. खैर, काफी लंबे अरसे के बाद जब वांसदा में जयकिसन की प्रतिमा स्थापित हुयी तब पंड्याजी को विशेष अतिथि के रूप में निमंत्रित किया गया था.
शंकर जयकिसन के संगीत सर्जन की बातें करने से पहले एक बात मैं स्पष्ट करना चाहुंगा. कौन से गीत की बंदिश दोनें मेंसे किसने बनायी, दोनों के बीच कौन सी गलतफहमी हुयी, जयकिसन और पल्लवी का प्रणय कैसे विकसित हुआ इत्यादि बातें जिसे गोसिप कहते हैं, मैं ऐसी वैसी गोसिप के बारे में नहीं लीखुंगा. सिर्फ संगीत सर्जन के बारे में हम बात करेंगे. मैं मानता हुं कि क्रिकेट के खेल की तरह संगीत सर्जन भी एक टीम वर्क अर्थात् संघकार्य है. इस बात में संगीतकार के अतिरिक्त उन के साजिंदो का भी प्रदान रहता है.
वैसे तो यह दोनों की उपस्थिति में भी उन के समीक्षकों का दावा ऐसा था कि शंकर जयकिसन के नाम से खुद राज कपूर संगीत तैयार करते थे. हालांकि यह सच नहीं था. बेशक, उन दिनों जितने भी फिल्म सर्जक थे उस में राज कपूर एक ऐसा फिल्म सर्जक था जो भारतीय संगीत का बडा अभ्यासी था. संगीत की बारीकियों को वो बखूबी जानता था. अतैव उस की फिल्मों का संगीत दूसरों से ज्यादा लोकप्रिय हुआ.
उन दिनों ए आर कारदार, मनमोहन देसाइ के पिता कीकुभाइ देसाइ, महेश भट्ट के पिता नानाभाइ भट्ट, होमी वाडिया इत्यादि सर्जक थे. उन सभी में राज कपूर संगीत का सब से ज्यादा ज्ञाता था. इस लिये ऐसी बातें फैली थी की राज कपूर खुद अपनी फिल्मों का संगीत तैयार करता है.
आजकल संगीत की ऐसी जानकारी संजय लीला भणसाली में हैं ऐसा लताजी कह चूकी है. वस्तुतः शंकर जयकिसन आला दरज्जे के संगीतकार थे. राज कपूर कैम्प में रहते हुए भी जब उन्होंने दूसरे सर्जकों की फिल्मों में संगीत परोसना शुरु किया तब समीक्षको को शरमिंदा होना पडा
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