शंकर जयकिसन-16 (गुजराती भाषा के प्रमुख दैनिक गुजरात समाचार के 07-06-19 के अंक में यह लेख प्रकाशित हुआ था)
आप कभी संत
मुरारी बापु की रामकथा में उपस्थित रहे हैं ? यदि आप का उत्तर हां में है तो आप यह भी जानते ही होंगे कि
कथा में बीच बीच मुरारी बापु एक भजन अक्सर गवाते रहते हैं: ‘अब सौंप दिया इस जीवन का सब भार तुम्हारे हाथों में,
है जीत तुम्हारे हाथों में, है हार तुम्हारे हाथों में...’ आज तक करोडों भाविको ने यह भजन गाया होगा. आपने
भी गाया होगा. गाते हुए आप को कुछ याद आ रहा है ? नहीं ? तो मैं तुम्हें
याद दिलाता हुं. इस अति लोकप्रिय भजन की तर्ज हकीकत में शंकर जयकिसन के एक हिट गीत
की तर्ज है.
1951 में राज कपूर की
सुपरहिट फिल्म आवारा प्रस्तुत हुई थी. इस फिल्म में लताजी ने एक गाना गाया था : ‘आ जाओ तडपते हैं अरमां अब रात गुजरनेवाली है,
अब रात गुजरनेवाली है.. ’ जरा ध्यान दीजिए और सोचिये. कहां 1951 और कहां 2019 ! करीब करीब 70 साल पुरानी यह
बंदिश आज भी तरोताजा लगती है. यह कमाल है शंकर जयकिसन के संगीत का.
किसी हिन्दी
फिल्म के गीत की तर्ज करीब 70 साल तक इस तरह
गूंजती रहे यह अपने आप में एक ईतिहास है,
ऐसा ही और एक भजन है,
‘शिवशंकर का ध्यान, नर तन पाकर भूल गये...’ यह भजन भी शंकर जयकिसन की तर्ज छोड गये बालम मोंहे हाय
अकेला छोड गये... गीत पर आधारित है. छोड गये बालम गीत मूकेश और लताजी ने गाया था.
इस गीत में शंकर जयकिसन ने संगीत की परिभाषा में जिसे ओवर लेपिंग कहते हैं उस
तकनीक का इस्तेमाल किया था और वे कामियाब हुए थे. एक गायक गा रहा है. उस के द्वारा
जिस पंक्ति गायी जा रही है वह संपन्न होने से पहले ही दूसरा गायक बीच कहीं से गाना
शुरु करता है उस तकनीक को ओवरलेपिंग कहते हैं.
कहने का तात्पर्य
यह है कि 1950 के दशक के
जनजीवन पर शंकर जयकिसन के संगीत का कितना गहरा और बडा प्रभाव था इस बात का सबूत यह
है कि विविध भाषाओं के भक्तिगीतों में शंकर जयकिसन के गीतों की तर्ज का विनियोग
किया जाता था. आज इस एपिसोड में और एक बात कहनी है. गुजरात राज्य के जगप्रसिद्ध और
बागी माने गये हुए दंताली गाँव निवासी संत सच्चिदानंदजी ने अपनी आत्मकथा में लिखा
है, ‘जीवन के एक मोड पर हताश
होकर मैं आत्महत्या करने जा रहा था... तब कहीं शंकर जयकिसन के गीत सुनने में आये.
मुझे नयी प्रेरणा और नया उत्साह प्राप्त हुओ. मरने का निर्णय छोडकर मैं वापस लौट
आया..’
यह ताकत है शंकर
जयकिसन की निरीक्षण शक्ति और ग्रहणशक्ति कितनी सक्षम थी इस बात का एक द्रष्टांत
प्रस्तुत है.
बचपन में जयकिसन
ने अपने गाँव में जनेऊ (यज्ञोपवित ) का एक समारोह देखा था. जनेऊ लेने के बाद जनेऊ
लेनेवाला शिशु पढाई के लिये काशी की और रवाना होता ह है तब माता और बहनें रोने
लगती है. यह देखकर शिशु का मामा उसे रोकने जाता है. इस प्रसंग के अनुसंधान में उन
दिनों जयकिसन के गाँव की औरतें एक लोकगीत गाया करती थी. गुजराती भाषा में उस गीत
का मुखडा कुछ ऐसा था ‘गोरमा नो बडवो
खडियो लईने नदीए नहावा जाय रे... (अर्थात् ब्राह्मण माता का पुत्र कंधे पर अपना
सामान लेकर नदी में नहाने जा रहा है, नहाने के बाद वह काशी चला जायेगा इत्यादि). इस लोकगीत की धून जयकिसन को इतनी
अच्छी लगती थी कि फिल्म संगीतकार बनने के बाद उसने एक जबरदस्त गीत में इस धून का
उपयोग किया.
शायद याद आ गया
आप को वह प्रसिद्ध गीत. आप का अंदाज सही है, फिल्म श्री 420 का वह गाना प्रश्नोत्तर के रूप में था- ईचक दाना बीचक दाना दाने उपर दाना ईचक
दाना..., नर्गिस पढाते पढाते बच्चों के साथ प्रश्नोत्तर करती हैस
बोलो क्या ? सभी बच्चे एक
आवाज में जवाब देते हैं, मिर्ची... ठीक
इसी तरह अपने बचपन में सुने एक लोकगीत की तर्ज का इस्तेमाल करते हुए उस ने फिल्म
नई दिल्ही के लिये गीत रचा था- मुरली बैरन भई रे कनैया तोरी मुरली बैरन भई... यह
बंदिश भारतीय संगीत के राग पीलु पर आधारित थी.
कीचड के बीच में
रहकर भी कमल खीलता है. फिल्मों के बदनाम विश्व में रहते हुए भी इन दोनों ने संगीत
के माध्यम से भारतीय संगीत की जो सेवा की वह सही मायने में बेमिसाल थी. (क्रमशः)
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