आवारा का वह स्वप्न गीत सदा के लिये अजोड बन गया...

इस दुर्लभ तसवीर में राज साहब ढोलक बजा रहे हैं और दत्ताराम कुछ सुझाव पेश कर रहे हैं. (सौजन्य- शंकर जयकिसन फाऊन्डेशन, अमदावाद)

शंकर जयकिसन-11


फिल्म संगीत के स्वर्ण युग के बारे में बहुत सी किताबें लीखी गई हैं. बहुत सी डोक्युमेंटरी फिल्में बनी है. करीब करीब सभी किताबों में राज कपूर की फिल्म आवारा के स्वप्न गीत का वर्णन मीलता है. यह गीत हंमेशां के लिये अद्वितीय बन गया इतना ही नहीं लेकिन शंकर जयकिसन की गुणग्राहिता का भी यह जीवंत सबूत बन गया. इस गीत के ध्वनि मुद्रण में हमें अठारह बीस घंटे लग गये ऐसा लताजी ने इसी गीत के लिये कहा है.

वह गीत याने जुडवा गीत तेरे बिना आग यह चांदनी और घर आया मेरा परदेशी.. आज इस गीत के बारे में बात करेंगे. ऐसा ही एक अजोड गीत भोली सूरत दिल के खोटे... मास्टर भगवान ने अपनी फिल्म अलबेला के लिये संगीतकार सी रामचंद्र के पास तैयार करवाया था. उस गीत में जिस ढोली ने अपने बांहो की कमाल पेश की थी, उसका नाम तक भी कोई नहीं जानता है, दूसरी तरफ घर आया मेरा परदेशी गीत में जिस कलाकारने ढोलकी बजायी थी उस को आज सारी दुनिया जानती है. आईये, सुनें उस कलाकार की कथा को.

आवारा फिल्म का यह गीत जब ध्वनिमुद्रित हो रहा था तब करीब करीब 80-100 साजिंदे, पचास से ज्यादह समूहगीत गायक (कोरस) और लताजी तथा मन्ना डे मौजुद थे. हुंआ यूं कि पहेला गीत तेरे बिना आग यह चांदनी... रेकोर्ड हो चूका. लेकिन दूसरे गीत में लयवाद्य द्वारा बजाये गये ताल से राज कपूर को संतोष नहीं था. खुद शंकर, अब्दुल करीम, सत्तार, दत्ताराम सभी ने अपने हुनर बिखेरे लेकिन राज कपूर को समाधान नहीं हुआ.

राज कपूर ऐसा कलाकार था कि जब तक उस को खुद को शत प्रतिशत संतोष नहीं होता था तब तक वह रिकार्डिंग को ओके नहीं करता था. बार बार कोशिश करने के बावजूद लयवाद्यकार राज कपूर को जो रिदम चाहिये था वह नहीं दे पा रहा था. तब क्या हुआ ?

फिल्म संगीत में दत्तु ठेके से पहचाने गये ढोलकवादक दत्ताराम बाद में स्वतंत्र संगीतकार बने और उन्होंने परवरिश इत्यादि फिल्मों में हिट संगीत भी दिया. यह दत्ताराम के कार्य को प्रस्तुत करती एक डोक्युमेन्टरी फिल्म बनी थी. उस फिल्म में दत्तारामने यह गीत के बारे में क्या हुआ था यह हकीकत बयां की थी.

 अब सुनिये दत्ताराम की जुबानी...‘ शंकर जयकिसन के वाद्यवृन्द में सुमंत राज नाम का एक बांसुरीवादक था. उसने राज साहब को सुझाव दिया कि पूणे शहर का रहिवासी एक ढोलकी वादक लाला गंगावने इस समय बम्बई में है. मराठी लोकसंगीत ‘तमाशा’ में उस की जोडी का और कोइ ढोलकीवादक नहीं है. ईत्तेफाक से राज साहब ने भी उस कलाकार को एक दो प्रोग्राम में सुना था. उन्हों ने सुमंत से कहा, टेक्सी लेकर जाओ और लाला को लेकर आओ... तब तक दूसरे साजिंदों ने छोटा सा ब्रेक लेकर चाय-नास्ता कर लिया.

‘थोडी देर के बाद सुमंत लाला को लेकर आ गया. पसीने से भरे उस सांवरे आदमी को सभी साजिंदे देखते रहे कि अब यह आदमी क्या करेगा, देखते हैं. शंकर जयकिसन ने लाला को अपनी बंदिश के बारे में बताया. लाला ने अपनी ढोलकी पर पहली थाप मारी न मारी इतने में राज साहब घुटनों पर खडे हो  गये और कहने लगे, यही...यही मुझे चाहिये. चलो गाने के ध्वनि मुद्रण की तैयारी करो...

आप यह गीत एक से अधिक बार सुनिये. डेविड नाम के एक मेंडोलीन वादक और लाला गंगावने, इन दोनों ने पूरे गाने में अनोखा जादु परोस दिया है.. गीत का आरंभ भी इन दोनों की जुगलबंदी से होता है और अगर आप ध्यान से अंतरा सुनेंगे तो उस में भी इन दोनों ने बेमिसाल जादु बिखेरा है. अंतरा शुरू होता है, ‘अब दिल तोड के मत जाना...’  पहले मेंडोलीन बजता है, बाद में ढोलकी बजती है,, धीर्रर्... घा घीं धीं धा... धीर्रर्..धा धीं धीं धा.. पूरे गीत में यह दो साज का जबरदस्त जादु छा गया है...’

 जब गाने का रिकार्डिंग खत्म हुआ तब जयकिसन ने अपने सहायकों की तरफ ईशारा किया, यह आदमी अर्थात् लाला गंगावने अब यहां से पूणे वापस नहीं जाना चाहिये. इसे अपने साथ सदा के लिये रख लो... लाला को समझाया गया कि आप के जैसे कलाकार की सच्ची कदर बम्बई में ही हो सकती है. तमाशा में ढोलकी बजा बजाकर आप क्या करोगे... यहीं रह जाओ, हमारे साथ... आप को यहां अच्छा काम और वाजिब दाम दोनों ही मिलते रहेंगे... यह हुयी शंकर जयकिसन की कद्रदानी. और इस तरह लाला गंगावने बम्बई में बस गये. आवारा का यह ड्रीम सोंग सदा के लिये चिरंजीव बन गया.
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