प्रत्येक साज के एक से ज्यादा साजिंदे क्यूं रक्खे थे ?

शंकर जयकिसन-6

पिछली बार हमने देखा कि किस तरह शंकर जयकिसन के संगीतने ईसाइ  साजिंदों को भारतीय संगीत समजने-शीखने की प्रेरणा दी थी. शंकर जयकिसन के चाहकों की एक बैठक में किसीने दिलचस्प सवाल पूछा- प्रत्येक साज के एक से अधिक साजिंदे क्यूं ? प्रश्न बेशक मजेदार था. अतैव इस सवाल के जवाब में आज का एपिसोड समर्पित है. गौर फर्माइयेगा. बहुत ही दिलचस्प बात है यह.  यदि आपने मुहम्मद ऱफी साहब, मूकेशजी, तलत महेमूद इत्यादि का जीवंत कार्यक्रम देखा-सुना है तो आप के ध्यान में आया होगा कि यह सभी कलाकार गाते वक्त हार्मोनियम अपने साथ रखे हुए हैं. सिर्प लताजी, आशाजी या किशोर कुमार कभी अपने साथ हार्मोनियम नहीं रखते थे. 

अब यदि आप हार्मोनियम थोडा बहुत बजा लेना जानते हैं तो आप यह भी जानते होंगे कि हार्मोनियम बजाने का एक से अधित तरीका है. मिसाल के तौर पर यदि हार्मोनियम वादक पंडित भीमसेन जोशी या पंडित जसराजजी जैसे किसी गवैये के साथ संगत करता है तो उसे गायक के पीछे चलना पडता है. गायक जिस स्वर पर है, उस पर ठहराव करना पडता है. यह हुआ पहला तरीका. लताजी के साथ संगत करते अनिल मोहिले को देख लीजिये. हार्मोनियम बजाने की दूसरी जो शैली है उसे विद्वान कलाकार खटकदार वादन कहते हैं. यदि आपने फिल्म मेरे लाल का पायल की झंकार रस्ते रस्ते ध्यान से सुना है तो आप याद कीजिये. इस गीत के आरंभ में जिस खटके के साथ हार्मोनियम बजता है वह है खटकदार शैली. और एक तरीका है बजाने का जिस को भरा हुआ या भरावदार कहते हैं. 

जगजित सिंघ या अनुप जलोटाजी को गाते हुए सुनिये. वे अपने गायन के साथ हार्मोनियम के सूरों को भी गवाते हैं. बीच बीच में जो इन्टरल्यूड बजाते हैं वह फर्राटा अलग है. ऐसे फर्राटे में दो या तीन सूरों का कोर्ड भी होता है जो गीत को और भी आकर्षक बनाता है. सिर्फ गायन के साथ जो बजता है उस की और ध्यान देना है. यह भरावदार शैली का वादन है. फर्राटेदार वादन शैली का अद्भुत नमूना पाकिस्तान से आये और बम्बई में बस गये अदनान सामी का वादन है. यह वादन इतना फर्राटेदार होता है कि वादक की ऊंगलीयों को कैमरे में उतारना-कंडारना आसान नहीं होता है. फिल्म संगीत में सभी प्रकार के वादन की आवश्यकता हौती है. कौन सी शैली का वादन कभी काम में आयेगा यह कहना मुश्किल है. मिसाल के तौर पर फिल्म दाग का तलत महेमूद का गाया गीत अय मेरे दिल कहीं और चल... इस गीत के अंतरे में चल जहा गम के मारे न हो.. पंक्ति के पश्चात फर्राटेदार ओर्गन के सूर सुनाइ देते हैं. बीच बीच में अवकाश को भरते तीन तीन चार चार स्वर भी सुनने में आते हैं. 1950 के दशक में गुडी सिरवाई, वी. बलसारा, केरसी लोर्ड, एनोक डेनियल इत्यादि एकोर्डियन वादक थे जिन्हों ने एैसे बहुत गीतों में अपने फन को जीवंत किया था. 

कहने का मतलब यह है कि कौन से गीत में कौन से साजिंदे को आजमाना यह शुरु में कहना मुश्किल होता है. जब संगीतकार गीत की बंदिश का अपने दिलोदिमाग में सर्जन करता है तब अपने आप ही वह कौन सा साज कहां वापरना है उस का निर्णय कर लेता है. यह वजह है कि शंकर जयकिसन के वाद्यवृन्द में एक सौ साजिंदे क्यूं थे. हर एक साजिंदा अपने साज का बेताज बादशाह था.

और भी एक बात कहना आवश्यक है. प्रत्येक साजिंदा एक से ज्यादह साज बजाना जानता था. मिसाल के तौर पर वी बलसारा एकोर्डियन के अतिरिक्त पियानो और हार्मोनियम का भी अठंग उपासक था. यह प्रत्येक साज की खूबीयों से परिचित था. यदि आप थोडा बहुत संगीत समझते हैं तो आप को पता होगा कि पियानो और एकोर्डियन बजाने का ढंग अलग है. ठीक उसी तरह सितार-सरोद और मेंडोलीन बजाने में भी दो पहलु है. मिजराब को डाऊन टु अप और अप टु डाऊन ऐसी दो तरह से बजाते हैं. दोनों प्रकारके स्ट्रोक का झंकार अलग होता है. यह सब तकनीकी बातें हैं अतैव अखबार में लिखते समय मैं ऐसी बातों को लिखने से अलिप्त रहता हुं. यह लेखांक वास्तव में एक साज के एक से अधिक साजिंदे क्यूं थे वह सरल भाषा में स्पष्ट रूप से समजाने का प्रयास था.

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