फिल्म संगीत में शहनशाह शंकर जयकिसन ने आमूल परिवर्तन कर डाला

नमस्कार. मेरे संगीतप्रेमी थोडे दोस्तों की मधुर शिकायत थी कि गुजराती अखबार गुजरात समाचार की चित्रलोक पूर्ति में प्रकाशित हो रही मेरी शंकर जयकिसन विषयक श्रेणी के शुरु के किस्त वे पढ नहीं पाये थे. उन के लिये मैं श्रेणी के पहले दो तीन किस्त फिर प्रस्तुत कर रहा हुं.  दूसरे किस्त बाद में क्रमशः प्रस्तुत करता रहुंगा. आप सभी के प्यार का घायल जो हुं...धन्यवाद.


शंकर जयकिसन-1

  देश-परदेश की अनेक भाषाओं में जिन के बारे में बेसुमार लीखा गया है और जिन के संगीत के करोडों चाहनेवाले हैं एैसे संगीतकारों के बारे में लीखना अपने आप में एक बहुत बडा चेलेंज है. इसी कारणवश शंकर जयकिसन के बारे में लिखते वक्त दिल में थोडी झिझक थी और थोडा सा डर भी था. क्यों कि इन दोनों के बारे में मुझ से ज्यादा जाननेवाले संगीत प्रेमी हो सकते हैं. फिर भी मेरे स्तंभ के पाठकों को दिया हुआ वादा नीभाते हुए मैं यह श्रेणी शुरु करने जा रहा हुं. मुमकीन है मैंने प्रस्तुत की हुयी बहुत सी बातें संगीतप्रेमी पहलेसे जानते होंगे. हो सकता है, मेरी प्रस्तुति में कोई बात बिलकुल ही नयी होंगी. अपने पाठकों को नमस्कार करते हुए मैं यह श्रेणी शुरु करने जा रहा हुं.
   शंकर जयकिसन की बातों का आरंभ जरा हट के करने का ईरादा है. यहां जो बात कहने जा रहा हुं वह मेरे खयाल में अब तक किसीने प्रस्तुत नहीं की है. मुझे यह सब बातें बताने वाले लोगो में जिन का बहुत बडा प्रदान है उन सब का शुक्रिया अदा करना चाहुंगा. संगीतकार कल्याणजी (आनंदजी), दिलीप धोळकिया, एकाधिक संगीतकारों के साथ सहायक रह चूके सरोद और मेंडोलीन वादक किशोर देसाइ, सिनियर तालवाद्यकार बरजोर लोर्ड और राज कपूर के स्क्रीप्ट राईटर एवम् प्रचार अधिकारी वी पी साठेजीने मुझे  बहुत सी जानकारी दी थी. बम्बई के जिस सांध्य दैनिक में मेरी पत्रकारिता का आरंभ हुआ वह जन्मभूमि के मेरे साथी प्रखर कवि-गीतकार वेणीभाई पुरोहित और बिलावल के उपनाम से संगीत विषयक लिखने वाले गीतकार पत्रकार जितुभाई  महेता का भी शुक्रगुजार हुं. शंकर जयकिसन श्रेणी में अब आप जो पढने जा रहे हैं वह जानकारी इन सभी ने मुझे दी है. और भी कई लोगों ने मुझे सहायता की है. उन सभी का भी यहां शुक्रिया अदा करता हुं. अब आप जो पढने जा रहे हैं वह शंकर जयकिसन के शब्दों में प्रस्तुत करने का मेरा प्रयास है. मैंने जो कुछ जानकारी प्राप्त की उसे सिर्फ याददास्त के सहारे आप के सामने प्रस्तुत कर रहा हुं. अब संगीतकारों की जुबानी शुरु कर रहा हुं.
    'राज साहब ने हमें बरसात फिल्म के लिये उत्तरदायित्त्व सोंपा उन दिनों हमारे मन में सांप्रत परिस्थिति के बारे में विचारों की आपाधापी चल रही थी. अलबत्ता, उस के पीछे पापाजी (अर्थात्त पृथ्वीराज कपूर) के साथ हुयी बातों का असर था. पापाजी के विचार और उन के नाटकों का भी हमारे दिलोदिमाग पर गहरा असर था. आझादी की सुबह देश का बंटवारा हुआ तब हिंसा का जो तांडव हुआ था उस ने लाखो लोगों का खून बहा था. ईन्सान में असुर पैदा हो गया था और भीषण नरसंहार हुआ था. असंख्य औरतों की अस्मत लूंटी गयी थी. लाखों लोग बेघर हो गये थे. यह सब जख्म अभी हरे थे. हवा में खून-मांस की बदबू  फैली हुयी थी. हम सोचते थे कि ऊभर रही पीढी के बच्चों में अगर नया उत्साह भरना है, उन के दिल में जीवन के प्रति आशावाद प्रकट करना है तो हमारे स्ंगीत में नयी ऊमंग, नये तराने, नया खमीर, नयी चेतना भरनी होगी. ऐसा संगीत सर्जन करना पडेगा जिस को सुनते ही बच्चे थिरकने लगे, नाचने लगे.
    'हमारी इस कल्पना को साकार करने का मौका राजजीने हमें बरसात में दिया. एक दिन हम गुजराती गरबा के हींच ताल के बारे में बातें कर रहे थे कि हींच में कितने आयाम हैं  सारी बातें आत्मीय माहौल में हो रही थी. शंकरजी अचानक बोले, ताक् धीना धीन्... राज साहब ऊछल पडे और बोले इस बोल को अपने किसी गीत में प्रविष्ट कर दो. और एक नये गीत ने जन्म लिया. बरसात में हम से मिले तुम सजन तुम से मिले हम बरसात में, ताक् धीना धीन्... मझे की बात यह हुयी कि इस बोल को हमने किसी तालवाद्य पे नहीं कोरस (समूहगान) के रूप में प्रस्तुत किये....'
     इस पूरे परिच्छेद को पढिये फिर से. बंटवारा, बलात्कार, आसुरी हिंसा और कत्लेआम और खून टपकते जख्म- इन सभी को भूला दे ऐसा संगीत शंकर जयकिसन को तैयार करना था. उन्हों ने फिल्म संगीत में आपादमस्तक जबरदस्त परिवर्तन कर दिखाया और एक ऐसे संगीत को जन्म दिया जो आज तक सारी दुनिया में गूंज रहा है. पहला बोलपट (टॉकी) आलम आरा के समय से अर्थात्  1931-32 से सन '46 तक जिस प्रकार का संगीत सुनने में आया उस से बढकर इन दोनों ने एैसा संगीत प्रस्तुत किया जो आनेवाली सभी पीढीयों के संगीतप्रेमीओं को अभिभूत कर दे. फिल्म संगीत का स्वर्ण युग इन दोनेां से शुरु हुआ ऐसा कहनें में कोइ क्षति नहीं होगी. यद्यपि इस कार्य में उन्हें, अपने म्युझिक एरेंजर सेबास्टियन, एन्थनी गोन्साल्विस, फ्रेन्की फरनान्डिस, दत्ताराम, वी (विस्तास्प) बलसारा, लाला, सत्तार, वान शिप्ले, जयराम आचार्य, रईस खान,   एनोक डेनियल इत्यादि साजिंदों ने भी भरपुर सहयोग दिया.
   यूं समजिये के फिल्म संगीत में इन दोनेां ने क्रान्ति कर डाली, उन दिनों शायद उन्हें कल्पना भी नही थी कि हमारा संगीत पूरी दुनिया को हीला के रख देगा, आनेवाली पीढी के संगीतप्रेमी उन को जी भर के दाद देंगेय जी हां, अब हम  संगीत के इस दो जादुगरों की बात शुरु करने जा रहे हैं. तैयार हो जाइये, इस श्रेणी को पढने और अपना प्रतिभाव देनें... हो सकता है, इस धारावाहिक में थोडी सी बातें आप जानते होंगे, थोडी सी बातें बिलकुल नयी होंगी. बामुलाहिजा होशियार, संगीत के शहनशाह शंकर जयकिसन आ रहे हैं...
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शंकर जयकिसन का सूर्योदय हुआ तब हिन्दी फिल्म संगीत कैसा था ?

शंकर जयकिसन-2

1931 में पहली टॉकी अर्थात् बोलपट आलमआरा आयी तब से फिल्मों में संगीत का भी आविर्भाव हुआ. शुरु में गीत और नृत्य का संगीत अलग रहता था और जिसे ह्म पार्श्वसंगीत (बेकग्राउन्ड स्कोर) कहते हैं वह अलग अलग रहता था. पार्श्वसंगीत में पात्रों के संवेदन को व्यक्त करने का प्रयास था. प्रमुख संगीतकार ही यह दोनों जिम्मेदारी सम्हालते थे. शंकर जयकिसन का उदय हुआ तब भी धुरंधर संगीतकार मौजुद थे. ऐसे संगीतकारों में मास्टर गुलाम हैदर, श्याम सुंदर, नौशाद, अनिल विश्वास, सज्जाद हुसैन, सी. रामचंद्र और हु्श्नलाल भगतराम जैसे बडे बडे संगीतकार काम करते थे. इन सभी ने अपने अपने ढंग से फिल्म संगीत को समृद्ध करने का पुरुषार्थ किया था. 1934-35 में पार्श्वगायन का आरंभ हुआ.
वहीं से अगर बात को आगे बढाया जाय तो पहली टॉकी से शुरु कर के 1946-47 तक फिल्म संगीत कुछ इस प्रकार का था. शास्त्रीय संगीत, प्रत्येक भारतीय भाषा का नाट्य संगीत, हर एक राज्य का अपना लोक संगीत, रवीन्द्र संगीत और अल्प मात्रा में पाश्तात्य संगीत का विनियोग फिल्मों में होता था. अनिल विश्वास ने भी पाश्चात्य संगीत का थोडा  बहुत उपयोग अपनी फिल्मों में किया था जिसे हम शंकर जयकिसन के आगमन पूर्वे का प्रास्ताविक कह सकते हैं. एक किस्सा यादगार है. अनिलदा उन दिनों सागर मूवीटोन में काम करते थे. एक फि्ल्म के गीत का ध्वनिमुद्ररण करते वक्त उन्हों ने बारह-तेरह साजिंदे मागे तब सागर मूवीटोन का मेनेजर नाराज हुआ था. कहने लगा, क्या शादी की बारात नीकालनी है ? इतने सारे साजिंदों की क्या आवश्यकता है ?  गीत के ध्वनिमुद्रण का खऱ्च कितना बढ जायेगा वह जानता है ? अनिल दाने उसकी बात अनसुनी कर के अपना काम नीकाल लिया.
इस घटना को शंकर जयकिसन के आगमन पूर्वे की प्रस्तावना कहने की एक खास वजह है. शंकर जयकिसन ने दस बारह नहीं पूरे एकसौ साजिंदों को लेकर अपनी भव्योत्तम कारकिर्द का आरंभ किया था. यह परंपरा 1960 के दशक के अंत तक चालु रही थी जब लक्ष्मीकांत प्यारेलाल अपने साथ सौ से डेढसौ तक के साजिंदे रखने लगे थे. आज यह बात हमें विस्मयजनक नहीं लगती, लेकिन जिस वक्त की हम बात कर रहे हैं. 1950 के दशक में जब एक फिल्म ज्यादा से ज्यादा तीन चार सप्ताह में और पंद्रह बीस हजार रूपये में बन जाती थी तब एक सौ साजिंदों का मतलब क्या हो सकता है उस की आप कल्पना कीजिये. लेकिन यह दोनों खुशकिस्मत थे जैसे कि स्वर किन्नरी लता मंगेशकरने कहा है कि इन दोनों को राज कपूर जैसा फिल्म निर्माता मिला था जिसने  कर्णप्रिय और सदाबहार संगीत के लिये इन दोनों ने जो सुविघाऐं मागी वो बिना किसी झिझक के दी.
कैसे थे राज कपूर. एक किस्सा सुनाता हुं. जब नौशाद साहब सिने म्युझिक डायरेक्टर्स एसोसियेशन के अध्यक्ष थे तब की बात है. एसोसियेशन की एक बैठक में राज कपूर भी पहुंच गये. नौशाद साहब ने कहा, यह संगीतकारों की बैठक है. आप यहां क्या कर रहे हैं ? तब जयकिसन ने विनम्रतापूर्वक कहा कि नौशाद साहब, गलत मत समझिये लेकिन राज साहब भी संगीत के मर्मी हैं. हमारे बहुत से गीतों में उन्हों ने महत्त्वपूर्ण सुझाव दिये हैं. उन को भी यहां उपस्थित रहने का अधिकार है...यहां और एक बात का स्मरण करना चाहिये. बम्बई में फिल्म जगत के साजिंदो की एक संस्था है स्वर आलाप. उन की एक स्मरणिका में एक यादगार तसवीर छपी है, जिस में राज कपूर ढोलक बजा रहे हैं और उपस्थित सभी लोग डान्स कर रहे हैं...
शंकर जयकिसन अपने समय से बहुत आगे थे. इन्हों ने जो प्रयोग किये वे सभी न भूतो न भविष्यति जैसे थे. फिल्म संगीत के दो वरिष्ठ साजिंदे मेंडोलीन-सरोदवादक किशोर देसाइ और वरिष्ट रिधमीस्ट बरजोर लोर्ड एक अजीबोगरीब बात करते हैं. इन दोनों का कहना है, शंकर जयकिसन बहुत ऊंचे दरज्जे के ‘कानसेन’ थे. तीस पैंतीस वॉयलीनवादक अपना अपना नोटेशन बजाते तब अचानक जयकिसन कहता, रुकिये... उस कोने में कहीं कुछ गलत बज रहा है, अरे भाइ आप जरा बजाओ तो... अपना नोटेशन चेक करो. कुछ गलत बज रहा है... और उस का अंदाज सही नीकलता. शंकरजी भी ऐसे ही गुणीजन थे. इन की सर्जनशीलता की क्या बात करें, एक ही नमूना पेश है. इन्हों ने भैरवी सदा सुहागिन रागिनी का उपयोग बहुत किया है. कम से कम पचास पचहत्तर गीत भैरवी में आसानी से मिलेंगे. इन सभी भैरवी गीतों को सुनिये. एक भी भैरवी गीत दूसरे भैरवी गीत जैसा नहीं है. सभी भैरवी गीतों का अपना अलग अंदाज है. सभी भैरवी गीत अपने आप में सदाबहार हैं. जब एक ही रागिनी में इतना वैविध्य मौजुद है तब दूसरे गीतों की क्या बात करें....
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शंकर जयकिसन के वह एकसौ साजिंदे- धन्यवाद ऊस गुजराती लेखक को जो इन्हें ढूंढ लाये

शंकर जयकिसन-3

शंकर जयकिसन श्रेणी के पहले दो एपिसोड में हमने ऊनके आने की पूर्वभूमिका देखी. उस में आप को बताया गया था कि शंकर जयकिसन ने स्वतंत्र र्संगीतकार के रूप में प्रवेश किया तब एकसौ साजिंदों को साथ लेकर किया था. अद्यापिपर्यंत एक भी भारतीय भाषा के पत्रकार या लेखक ने शंकर जयकिसन के एकसौ साजिंदों के बारे में कोइ संशोधन नहीं किया था. Indian space research organisation (ISRO) के अमदावाद एकम में ग्रंथपाल के रूप में जुडे हुए डॉक्टर पद्मनाभ जोशीने यह भगीरथ कार्य कर के दिखाया. वे बम्बई गये, वयोवृद्ध हो चूके साजिंदों से मिले. कौन से साजिंदे ने शंकर जयकिसन के साथ कौन सा साज किस गीत में छेडा था उस की जानकारी प्राप्त की. इस से भी संतुष्ट नहीं हुए.

अतैव कहीं से शंकर जयकिसन के सहायक संगीतकार सेबास्टियन डिसूझा का गोवा का पता प्राप्त किया और गोवा पहुंचे. दो तीन दिन गौवा में रह कर सेबास्टियन से मिले और ऊन से भी बहुत सी जानकारी प्राप्त की. हम सभी संगीतप्रेमीयों के लिय़े यह बहतु बडा अेहसान है कि डॉक्टर जोशीने शंकर जयकिसन के एकसौ साजिंदों की जानकारी हमारे समक्ष प्रस्तुत की. बहुत बहुत धन्यवाद डॉक्टर जोशीजी को. कौन थे वे 100 साजिंदे. आप ने शंकर जयकिसन विषयक किताब भी लीखी है. आईये, अब ऊन में से दोचार कलाकारों की झलक प्राप्त करें. यह वह हस्तीयां है जो बाद में स्वतंत्र संगीतकार के रूप में ऊभऱे और फिल्म संगीत के स्वर्णयुगमें मूल्यवान प्रदान किया.

मिसाल के तौर पर इलेक्ट्रोनिक साज बजाते थे, कल्य़ाणजी वीरजी शाह (जिन्हों ने बाद में अपने छोटे भाइे आनंदजी के साथ मिलकर स्वतंत्र संगीतकार के रूप में काम किया), विपिन रेशमिया (जिन का पुत्र हिमेश रेशमिया आज संगीतकार गायक अभिनेता है), दत्ताराम, प्यारेलाल शर्मा (जिन्हों ने बाद में लक्ष्मीकांत के साथ मिलकर जोडी बनाई). इन सभीने अपने अपने साज बजाते हुए मधुर संगीत सर्जन करने का हुनर भी सीख लिया जो बाद में उन को अपने काम में उपयोगी साबित हुआ. अर्थात् शंकर जयकिसन ने इन सभी के गुरु बनकर इन को मधुर और यादगार संगीत सर्जन की कला भी सीखाइ.

अब इन साजिंदों के साज का परिचय लीजिए. कल्याणजी और विपिन रेशमिया इलेक्ट्रोनिक की बोर्ड (क्ले वॉयलीन) बजाते थे. दत्ताराम लयवाद्य बजाते थे और सहायक संगीतकार के रूप में काम करते थे. केरसी लोर्ड एकोर्डियन और पियानो बजाते थे. बीझी (बरजोर) लोर्ड बोंगो कोंगो बजाते थे. डेविड, लक्ष्मीकांत कूर्डिकर, महेन्द्र भावसार और किशोर देसाइ मेंडोलीन बजाते थे. रईस खान और जयराम आचार्य सितार बजाते थे. गुडी सिरवाई, एनोक डेनियल्स और वी बलसारा एकोर्डियन बजाते थे. रामसिंघ शर्मा (संगीतकार प्यारे लाल के पिता) और मनोहारी सिंघ सेक्सोफोन और ट्रम्पेट बजाते थे. पंडित पन्नालाल घोष, सुमंत राज और पंडित हरिप्रसाद चौरसिया बंसी बजाते थे....

शंकर जयकिसन के सौ साजिंदों में यह बहुत थोडे साजिंदों का परिचय है. सभी के नाम यहां देना संभव नहीं है. संक्षेप में कहुं तो चालीस से ज्यादा वॉयलिनवादक, करीब करीब नौ-दस लयवाद्यकार, (जिस में तबलावादक, ढोलक-ढोलकी वादक, पाश्चात्य लयवाद्य के उस्ताद, खंजिरी, मंजिरे, ट्रायन्गल, मटकी, खोल-नाल ईत्यादि बजानेवाले), आधा डर्झन गिटारवादक और करीब उतने ही हार्मोनियम वादक इन के पास थे. इस लिये ईतना बडा वाद्यवृन्द शंकर जयकिसन ने अपने साथ रखा था.

अब अगर किसीने पूछ लिया कि एक साज के इतने सारे वादकों की क्या जरूर थी ? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि हर एक साज बजाने के अलग अलग तरीके होते हैं. जैसे एक राग अलग अलग घराने (गुरु-शिष्य परंपरा) के कलाकार अपने अपने ढंग से प्रस्तुत करते हैं, कुछ इसी तरह हर एक साज बजाने का प्रत्येक कलाकार का अलग स्टाईल होता है. कौन सा कलाकार की कब कौन से गीत में आवश्यकता पडेगी वह तो प्रमुख संगीतकार ही सोच सकते हैं. 1950 के दशक के उत्तरार्ध में जम्मु कश्मीर से आये पंडित शिवकुमार शर्मा, संतुर लेकर. अपनी कला से वे फिल्म संगीत की एक महत्त्वपूर्ण धरोहर बन गये.

और हा, दोनों खुशनसीब थे कि उन को इतना बडा ओरकेस्ट्रा रखने की ईजाजत पहली ही फिल्म बरसात से राज कपूर साहब ने दी थी. शायद राजजी को अंतर्प्रेऱणा हुई थी कि यह दोनों कुछ नया करने जा रहे है. इन दोनों ने राज कपूर के विश्वास को सार्थक किया. पहली ही फिल्म बरसात ने तहलका मचा दिया. वरिष्ठ साजिंदे किशोर देसाई और बीझी लोर्ड एक दिलचस्प बात कहते हैं.

‘यह दोनों एक सौ प्रतिशत ‘कानसेन’ थे. पूरे वाद्यवृन्द पर इन के कान लगे रहते थे. मिसाल के तौर पर चालीस वॉयलिन एक साथ बजते थे तब भी कभीकभार जयकिसन एकाद वॉयलिन वादक को कहता था, भाई, जरा अपना नोटेशन (स्वरलिपि) चेक करो. आप के बजाने में कुछ फर्क लगता है... ऐसे कानसेन थे दोनों...’ कौन से साज का कहां किस तरह इस्तेमाल किया जाय, कौन से साज का कौन सा ध्वनि (साऊन्ड़) किस तरह गीत में संजोया जाय यह भी ईन दोनों की कमाल थी. दोनों अपने आप में बेमिसाल स्वरनियोजक थे. 

अब यहां देखिए कुदरत का कमाल. कहां पंजाब, कहां हैदराबाद (आंध्र प्रदेश) और कहां बम्बई. शंकर रघुवंशी पंजाब में पैदा हुए, हैदराबाद में पले-पढे और काम की तलाश में बम्बई आये. दूसरी तरफ दक्षिण गुजरात के वांसदा नाम के छोटे से कस्बे से आये जयकिसन पंचाल. दोनों को कुदरत ने एक किये और इन दोनेां ने पूरे फिल्म संगीत का ढांचा बदल दिया, समूची क्रान्ति कर दी. अगले सप्ताह से हम ईन दोनों के संगीत सर्जन के वाकये पढेंगे, सुनेंगे.
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