एक गुजराती नाट्य निर्माता के कार्यालय में मिेले दो अजनबी, और बन गई जोडी दो जिस्म मगर एक जान हैं हम जैसी



शंकर जयकिसन-4

पिछले एपिसोड (15-02-19 के गुजरात समाचार दैनिक) में हमने पंजाब से हैदराबाद होकर बम्बई पहुंचे शंकर रघुवंशी का परिचय के बारे में पढा. दूसरी तरफ गुजरात राज्य के सूरत के पास कोसंबा वागरा नाम के एक छोटे से कस्बे में जन्मे जयकिसन डाह्याभाई पंचाल ने अपने छोटे से गांव के संगीत शिक्षक से संगीत की प्राथमिक शिक्षा प्राप्त की. वह शिक्षा की नींव इतनी तो पक्की थी कि उस के आधार पर वह युगसर्जक फिल्म संगीतकार बन सका.

किशोरावस्था में अपने गांव के करीब छेाटे बडे व्यवसाय भी किये. लेकिन उस को मझा नहीं आता था. उस का मन व्याकूल रहता था. आखिर देश के दूसरे हजारों स्वप्नसेवी युवकों की तरह जयकिसन भी बम्बई पहुंच गया. अब देखिये कुदरता कमाल. एक प्रसिद्ध गुजराती नाट्यकार चंद्रवदन भट्ट के कार्यालय में शंकर और जयकिसन दोनों काम के लिये आते जाते रहते थे.

इसी आवनजावन में थोडा सा परिचय हुआ. वह दोस्ती ऐसी बनी कि समझो दोनों के बीच जन्मोजन्म का पुराना दोस्ताना हो. जयकिसन अच्छा हार्मोनियमवादक है ऐसी जानकारी मिलते ही शंकर ने उसे सुझाव दिया कि मेरी तरह तुम भी पृथ्वी थियेटर में भरती हो जाओ. उस जमाने के शीर्ष अभिनेता पापा पृथ्वीराज कपूर ऊन दिनों पृथ्वी थियेटर नाम की नाटक कंपनी चलाते थे और सामाजिक ऊद्देशपूर्ण नाटक का मंचन करते थे.

शंकरजी पृथ्वी थियेटर में तबलावादक के रूप मे काम करते थे. जयकिसन को भी अपने साथ ले गये. दोनों संगीतकार राम गांगुली के सहायक के रूप में काम करने लगे. उस वक्त राज कपूर तो जन्मजात ज्यौहरी था. उस ने इन दोनों की प्रतिभा को त्वरित पहचान ली और अपनी फिल्म बरसात का संगीत तैयार करने का मौका इन दोनों को दिया. अपनी पहली फिल्म का काम करते हुए इन दोनों ने एैसा जादु किया कि फिल्म संगीत में नये युग का आविर्भाव हुआ.

नसीब का चक्र ऐसा फिरा कि इन दोनों की जोडी दो जिस्म मगर एक जान है हम (फिल्म संगम) जैसी बन गयी. पहली ही फिल्म का संगीत सुपरहिट हो गया. फिल्म संगीत में मानो क्रान्ति हो गई. यहां और एक पहलु को भी देखना चाहिये. शंकरजी स्वभाव से अंतर्मुख औऱ आशुतोष. आसानी से उन को खुश नहीं कर सकते थे. जरा सी बात में नाराज भी हो जाते.

जयकिसन शुरुसे ही हंसमुख और बहिर्मुख स्वभाव के थे. मनमौजी थे. किसी हीरो जैसा आकर्षक व्यक्तित्व था. रोज शाम बम्बई के चर्चगेट की बगल में आये गेलोर्ड रेस्टोरां में बैठते और लोगों को मिलते रहते. गेलोर्ड के मालिकों ने एक टेबल जयकिसन के लिये रिझर्व कर रखा था. उस टेबल पर और किसी को बैठने नहीं देते थे. यहां तक कि जयकिसन के निधन पश्चात भी एक साल तक वह टेबल खाली रहने दिया था.

इत्तेफाक से यही गेलोर्ड रेस्टोरां में ओ पी नय्यर भी जाते थे. शंकर और जयकिसन दोनों में एक बहुत बडा साम्य था. यह दोनों पक्के ‘कानसेन’थे. सेबास्टियन डिसूझा और एन्थनी गोन्साल्विस जैसे संगीतज्ञों के सहवास में रहते हुए यह दोनों पाश्चात्य संगीत की बारीकीयों को भी थोडा बहुत समजने लगे थे. समग्र विश्व के संगीतकारों और गायकों को सुनते और उस में से मख्खन निकाल लेते.

मिसाल के तौर पर यह गाना सुनिये. फिल्म शिकार का यह गीत परदे में रहने दो परदा ना ऊठाओ... वैसे तो उन की प्यारी रागिनी भैरवी में है. लेकिन इस गीत में अरेबियन टच भी यह दोनों ने बखूबी दिया है. और एक वात समजने जैसी है. दोनों बडे गुणग्राही थे. अपने साजिंदों को उन की निजी मर्यादाओं के साथ स्वीकारते थे. एक शहनाइ वादक शराबी था. लेकिन उस की शहनाइ बहुत मधुर बजती थी. इन दोनों ने उस के शराबी होने पर एतराज नहीं लिया और अस को अपने साथ रख लिये. कभीकभार रेकोर्डिंग (ध्वनिमुद्रण) के दिन अगर वह नशे में है ऐसा ध्यान में आ गया तो एक आदमी उस के साथ बैठा देते. जब शहनाई बजाने का क्षण आता तो बगल में बैठा आदमी उस वादक को झकझोर देता था.

जयकिसन के बारे में औऱ एक यादगार वाक्या है. मैं संगीतकार नौशाद साहब की जीवनी लीख रहा था तब चोटि के फिल्म सर्जक विजय भट्टजी ने एक घटना सुनाई थी. विजय विजय भट्ट ऊन दिनों गूंज ऊठी शहनाई फिल्म बना रहे थे. शहनाईनवाझ उस्ताद बिस्मील्ला खान साहिब को बम्बई में लाये थे. रोज रात को छोटी सी महफिल जमती थी. एक रात खान साहिब ने एक तर्ज बजायी जो भैरवी में थी. जयकिसन को वह तर्ज बहुत भायी और उस ने अपनी एक फिल्म के गीत को इस तर्ज में स्वरबद्ध करने का सोचा.

विजय भट्ट को पता लगने पर उन्होंने जयकिसन को फोन किया कि यह तर्ज का उपयोग हम अपनी फिल्म में करने जा रहे हैं. जयकिसन ने त्वरित उत्तर दिया, आप बेफिकर रहिये. मैं वह तर्ज का उपयोग नहीं करुंगा. ऐसा नेक ईन्सान था जयकिसन. मेरा जूता है जापानी (श्री 420) गाने के बारे में भी ऐसा ही कुछ हुआ था. एक विदेशी बंदिश अच्छी लगने पर जयकिसन ने मेरा जूता है जापानी गीत तैयार किया था.

ईत्तेफाक से गुजराती संगीतकार अजित मर्चंट ने गुजराती फिल्म दीवादांडी के लिये यही विदेशी बंदिश का उपयोग कर के एक गीत बनाया जिस की पिछले दिनों स्वर्ण जयंती मनाई गइ. वह गीत था तारी आंख नो अफिणी तारा बोल नो बंधाणी... इस गीत को ए आर ओझा नाम के गुजराती गायक की आवाज में ध्वनिमुद्रित किया गया था. उस गायक की अदायगी ऐसी थी कि सुनने वाले यही समजते कि यह गीत मूकेशजी की आवाज में है..
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ईसाइ साजिंदों को भारतीय संगीत शीखने की प्रेरणा कैसे मिली ?

शंकर जयकिसन-5

‘एक दिन मुझे विस्मय होने लगा था कि गोवा के यह ईसाइ साजिंदों को भारतीय संगीत के प्रति आकर्षण कैसे हुआ ? हम सब साथ मिलकर काम कर रहे ते इस लिये मैंने एक दिन उन को पूछ ही लिया, आप को भारतीय संगीत क्यों शीखना है ? तब एन्थनी गोन्साल्विसने कहा, राजजी (राज कपूर) की फिल्मों में शंकर जयकिसन जिस प्रकार का संगीत परोस रहे हैं उसके हार्द को हम समझना चाहते हैं ताकि हम भी उस सर्जन में प्रदान कर सकें और हमारी संपूर्ण शक्ति उन के काम आ सकें..’  संगीतकार कल्याणजी (कल्याणजी आनंदजी फेम) हमें समझा रहे थे. शंकर जयकिसन के आगमन पूर्व क्या होता था कि इन ईसाइ साजिंदेां के सामने कोइ बडा चेलेंज नहीं था. क्यों कि हमारे लगभग सभी संगीतकार ऐसे थे कि वे पाश्चात्य स्वरलिपि पद्धति (स्टाफ नोटेशन) नहीं जानते थे. संगीतकार अपनी बंदिश उन को सुना देते, उन का सहायक स्वरलिपि लिखकर अपने अपने साजिंदों को दे देते. उस के आधार पर रिहर्सल्स (रियाझ या तजुर्बा) होते और तत्पश्चात ध्वनिमुद्रण भी हो जाता. स्टाफ नोटेशन लिखनेवालों में सेबास्टियन, एन्थनी इत्यादि थे और भारतीय नोटेशन लिखनेवालों में अनिल मोहिले, किशोर देसाइ इत्यादि थे.

शंकर जयकिसन ने पहली ही फिल्म बरसात में जो संगीत परोसा उसे सुन कर यह ईसाइ साजिंदे समझ चूके ते कि इन दोनों का संगीत दूसरों से अलग है. शंकर जयकिसन की बंदिशों के साथ प्रास्ताविक (प्रेल्युड), मुखडा औऱ अंतरे के बीच बजनेवाला इन्टरल्यूड और तर्ज के अनुरूप प्रतिध्वनि (काउन्टर मेलोडी) तैयार करने के लिये ईसाइ साजिंदों को भारतीय संगीत का पर्याप्त ज्ञान होना आवश्यक था. उन दिनों फिल्म संगीत से पंडित राम नारायण भी जुडे हुए थे. पंडित राम नाराय़ण ऐसे तपस्वी थे जो तवायफ के कोठे से सारंगी जैसे साज को शास्त्रीय संगीत के मंच पर सोलो (एकल) साज के रूप में लाने में कामियाब हुए थे. हालांकि उन के बेटे पंडित ब्रिज नारायणजी सरोद बजाते हैं लेकि यह जानना दिलचश्प है कि पंडित राम नारायण की पुत्री अरुणाने सारंगी बजाना सीखा और आजकल वे केनेडा में सारंगी ईन्स्टीट्युट चला रही है. खैर ह्म आगे बढें.

गीतों की बंदिश के बारे में पंडितजी जब प्रधान संगीतकारों के साथ चर्चा करते उस से ईसाइ साजिंदों को ख्याल आ गया था कि पंडित रामनारायण भारतीय संगीत के विद्वान है. एन्थनी, डिकोस्टा और दूसरे दो चार ईसाइ साजिंदों ने पंडित राम नारायणजीसे भारतीय संगीत सीखना शुरु किया और अपने काम में आवश्यक हो सके इतना ज्ञान प्राप्त कर लिया. इस बात को दो आयामों से समजना चाहिये. शंकर जयकिसन ने ऐसा काम करना शुरु किया था कि ईसाइ साजिंदों को भी भारतीय संगीत की प्राथमिक तालीम लेनी पडे. दूसरी बात, यह ईसाइ साजिंदे अपने काम के प्रति कितने समर्पित थे यह भी यहां आप के ध्यान में आया होगा.

सिर्फ ईसाइ साजिंदों की यह बात नहीं है. हमारे साजिंदों को भी शंकर जयकिसन के साथ काम करते करते कुछ नया सीखने की प्रेरणा मिली थी. मिसाल के तौर पर दत्तु ठेके से प्रसिद्ध तालवाद्यकार दत्ताराम का ढोलक सुनकर वरिष्ठ तबलावादक अब्दुल करीम को ढोलक बजाने की तालीम लेने की प्रेरणा मिली थी. इस तरह शंकर जयकिसन ने अपने साजिंदों को भी कुछ नया सीखने की प्रेरणा दी. खुद यह दोनों भी दक्षिण बम्बई के न्यू एम्पायर, ईरोस, स्ट्रेन्ड इत्यादि थियेटरों में जाकर पाश्चात्य फिल्में देखते और पाश्चात्य संगीत को समझने की कोशिश करते. इस के अतिरिक्त पश्चिम के संगीतज्ञों की रचना भी सुनते जिस में बीथोवन, बाख, मोरिस इत्यादि के साथसाथ फ्रेन्क सिनात्रा, एल्विस प्रिस्ली, इत्यादि के संगीत को आत्मसात करने का प्रयास करते. इस तरह यह दोनों और उन के साजिंदे कुछ न कुछ नया सीखते और काम में आजमाते.
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