शंकर जयकिसन के वह एकसौ साजिंदे- धन्यवाद ऊस गुजराती लेखक को जो इन्हें ढूंढ लाये



शंकर जयकिसन-3

शंकर जयकिसन श्रेणी के पहले दो एपिसोड में हमने ऊनके आने की पूर्वभूमिका देखी. उस में आप को बताया गया था कि शंकर जयकिसन ने स्वतंत्र र्संगीतकार के रूप में प्रवेश किया तब एकसौ साजिंदों को साथ लेकर किया था. अद्यापिपर्यंत एक भी भारतीय भाषा के पत्रकार या लेखक ने शंकर जयकिसन के एकसौ साजिंदों के बारे में कोइ संशोधन नहीं किया था. Indian space research organisation (ISRO) के अमदावाद एकम में ग्रंथपाल के रूप में जुडे हुए डॉक्टर पद्मनाभ जोशीने यह भगीरथ कार्य कर के दिखाया. वे बम्बई गये, वयोवृद्ध हो चूके साजिंदों से मिले. कौन से साजिंदे ने शंकर जयकिसन के साथ कौन सा साज किस गीत में छेडा था उस की जानकारी प्राप्त की. इस से भी संतुष्ट नहीं हुए.

अतैव कहीं से शंकर जयकिसन के सहायक संगीतकार सेबास्टियन डिसूझा का गोवा का पता प्राप्त किया और गोवा पहुंचे. दो तीन दिन गौवा में रह कर सेबास्टियन से मिले और ऊन से भी बहुत सी जानकारी प्राप्त की. हम सभी संगीतप्रेमीयों के लिय़े यह बहतु बडा अेहसान है कि डॉक्टर जोशीने शंकर जयकिसन के एकसौ साजिंदों की जानकारी हमारे समक्ष प्रस्तुत की. बहुत बहुत धन्यवाद डॉक्टर जोशीजी को. कौन थे वे 100 साजिंदे. आप ने शंकर जयकिसन विषयक किताब भी लीखी है. आईये, अब ऊन में से दोचार कलाकारों की झलक प्राप्त करें. यह वह हस्तीयां है जो बाद में स्वतंत्र संगीतकार के रूप में ऊभऱे और फिल्म संगीत के स्वर्णयुगमें मूल्यवान प्रदान किया.

मिसाल के तौर पर इलेक्ट्रोनिक साज बजाते थे, कल्य़ाणजी वीरजी शाह (जिन्हों ने बाद में अपने छोटे भाइे आनंदजी के साथ मिलकर स्वतंत्र संगीतकार के रूप में काम किया), विपिन रेशमिया (जिन का पुत्र हिमेश रेशमिया आज संगीतकार गायक अभिनेता है), दत्ताराम, प्यारेलाल शर्मा (जिन्हों ने बाद में लक्ष्मीकांत के साथ मिलकर जोडी बनाई). इन सभीने अपने अपने साज बजाते हुए मधुर संगीत सर्जन करने का हुनर भी सीख लिया जो बाद में उन को अपने काम में उपयोगी साबित हुआ. अर्थात् शंकर जयकिसन ने इन सभी के गुरु बनकर इन को मधुर और यादगार संगीत सर्जन की कला भी सीखाइ.

अब इन साजिंदों के साज का परिचय लीजिए. कल्याणजी और विपिन रेशमिया इलेक्ट्रोनिक की बोर्ड (क्ले वॉयलीन) बजाते थे. दत्ताराम लयवाद्य बजाते थे और सहायक संगीतकार के रूप में काम करते थे. केरसी लोर्ड एकोर्डियन और पियानो बजाते थे. बीझी (बरजोर) लोर्ड बोंगो कोंगो बजाते थे. डेविड, लक्ष्मीकांत कूर्डिकर, महेन्द्र भावसार और किशोर देसाइ मेंडोलीन बजाते थे. रईस खान और जयराम आचार्य सितार बजाते थे. गुडी सिरवाई, एनोक डेनियल्स और वी बलसारा एकोर्डियन बजाते थे. रामसिंघ शर्मा (संगीतकार प्यारे लाल के पिता) और मनोहारी सिंघ सेक्सोफोन और ट्रम्पेट बजाते थे. पंडित पन्नालाल घोष, सुमंत राज और पंडित हरिप्रसाद चौरसिया बंसी बजाते थे....

शंकर जयकिसन के सौ साजिंदों में यह बहुत थोडे साजिंदों का परिचय है. सभी के नाम यहां देना संभव नहीं है. संक्षेप में कहुं तो चालीस से ज्यादा वॉयलिनवादक, करीब करीब नौ-दस लयवाद्यकार, (जिस में तबलावादक, ढोलक-ढोलकी वादक, पाश्चात्य लयवाद्य के उस्ताद, खंजिरी, मंजिरे, ट्रायन्गल, मटकी, खोल-नाल ईत्यादि बजानेवाले), आधा डर्झन गिटारवादक और करीब उतने ही हार्मोनियम वादक इन के पास थे. इस लिये ईतना बडा वाद्यवृन्द शंकर जयकिसन ने अपने साथ रखा था.

अब अगर किसीने पूछ लिया कि एक साज के इतने सारे वादकों की क्या जरूर थी ? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि हर एक साज बजाने के अलग अलग तरीके होते हैं. जैसे एक राग अलग अलग घराने (गुरु-शिष्य परंपरा) के कलाकार अपने अपने ढंग से प्रस्तुत करते हैं, कुछ इसी तरह हर एक साज बजाने का प्रत्येक कलाकार का अलग स्टाईल होता है. कौन सा कलाकार की कब कौन से गीत में आवश्यकता पडेगी वह तो प्रमुख संगीतकार ही सोच सकते हैं. 1950 के दशक के उत्तरार्ध में जम्मु कश्मीर से आये पंडित शिवकुमार शर्मा, संतुर लेकर. अपनी कला से वे फिल्म संगीत की एक महत्त्वपूर्ण धरोहर बन गये.

और हा, दोनों खुशनसीब थे कि उन को इतना बडा ओरकेस्ट्रा रखने की ईजाजत पहली ही फिल्म बरसात से राज कपूर साहब ने दी थी. शायद राजजी को अंतर्प्रेऱणा हुई थी कि यह दोनों कुछ नया करने जा रहे है. इन दोनों ने राज कपूर के विश्वास को सार्थक किया. पहली ही फिल्म बरसात ने तहलका मचा दिया. वरिष्ठ साजिंदे किशोर देसाई और बीझी लोर्ड एक दिलचस्प बात कहते हैं.

‘यह दोनों एक सौ प्रतिशत ‘कानसेन’ थे. पूरे वाद्यवृन्द पर इन के कान लगे रहते थे. मिसाल के तौर पर चालीस वॉयलिन एक साथ बजते थे तब भी कभीकभार जयकिसन एकाद वॉयलिन वादक को कहता था, भाई, जरा अपना नोटेशन (स्वरलिपि) चेक करो. आप के बजाने में कुछ फर्क लगता है... ऐसे कानसेन थे दोनों...’ कौन से साज का कहां किस तरह इस्तेमाल किया जाय, कौन से साज का कौन सा ध्वनि (साऊन्ड़) किस तरह गीत में संजोया जाय यह भी ईन दोनों की कमाल थी. दोनों अपने आप में बेमिसाल स्वरनियोजक थे. 

अब यहां देखिए कुदरत का कमाल. कहां पंजाब, कहां हैदराबाद (आंध्र प्रदेश) और कहां बम्बई. शंकर रघुवंशी पंजाब में पैदा हुए, हैदराबाद में पले-पढे और काम की तलाश में बम्बई आये. दूसरी तरफ दक्षिण गुजरात के वांसदा नाम के छोटे से कस्बे से आये जयकिसन पंचाल. दोनों को कुदरत ने एक किये और इन दोनेां ने पूरे फिल्म संगीत का ढांचा बदल दिया, समूची क्रान्ति कर दी. अगले सप्ताह से हम ईन दोनों के संगीत सर्जन के वाकये पढेंगे, सुनेंगे.

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