शंकर जयकिसन-2
1931 में पहली बोलती फिल्म (टॉकी ) आयी तब से फिल्मों में गीत संगीत का प्रादुर्भाव हुआ. उन दिनों गीत-नृत्य का संगीत अलग और पार्श्वसंगीत अलग रहता था. पार्श्व संगीत द्रश्य के संवेदन को जीवित करता था. फिल्म के प्रमुख संगीतकार ही यह दोनों प्रकार के संगीत का उत्तरदायित्त्व सम्हालते थे. सूरों के शहनशाह शंकर जयकिसन ने राज कपूर की फिल्म बरसात से स्वतंत्र संगीतकार के रूप में पदार्पण किया तब और संगीतकार भी फिल्मों को अपने अपने संगीत से सजाते थे. संगीतकारों की पहली जोडी हुश्नलाल भगतराम.की थी. (भगतरामजी के बेटे अशोक शर्मा बाद में फिल्मों में जाने माने सितारवादक थे.) शंकर जयकिसन आये तब हुश्नलाल भगतराम के उपरांत संगीतकार सरस्वती देवी, मास्टर माधोलाल, गुलाम हैदर, विनोद, श्याम सुंदर, सज्जाद हुसैन, खेमचंद प्रकाश, नौशाद, अनिल बिश्वास और सी रामचंद्र भी कार्यरत थे. इन सभी का संगीत भी काफी लोकप्रिय साबित हो चूका था.
1934-35 में पहलीबार पार्श्वगायन का आरंभ हुआ. इसी बात को ध्यान में रखते हुए आगे बढें तो बोलपट शुरु होने के पहले एक डेढ दशक तक संगीत का स्वरूप ही अलग था. देश के अलग अलग राज्यों का लोकसंगीत, शास्त्रीय संगीत, हरेक भाषाके रंगमंच (नाटकों का) संगीत, रवीन्द्र संगीत और थोडा सा पाश्चात्य संगीत भी फिल्मों में परोसा गया था.
शंकर जयकिसन के आगमन पूर्व फिल्मो में पाश्चात्य संगीतका थोडा बहुत विनियोग अनिल बिश्वास ने किया था, जिसे हम शंकर जयकिसन के आगमन पूर्वे की प्रस्तावना कह सकते हैं सागर मूवीटोन में अनिल दाने जब एक गीत के लिये दस बारह साजिंदों की मांग की तब सागर के मेनेजर खफा हुए थे और बोले थे किसी की बारात निकालनी है क्या ? इतने सारे साजिंदे किस लिये चाहिये ? खर्चा कितना बढ जायेगा जानते हो ? यद्यपि, अनिल दाने उन की बातों को सुनी अनसुनी कर के अपने हिसाब से काम किया था. इस घटना को शंकर जयकिसन के आगमन पूर्वे की प्रस्तावना कहने का एक खास वजह है.
शंकर जयकिसन ने दस बारह नहीं, पूरे एकसौ साजिंदेां को लेकर काम शुरु किया था. इस तरफ उन्हों ने एक नया इतिहास रचा. यह परंपरा बाद में लक्ष्मीकांत प्यारेलाल ने भी अपनायी थी. आज यह बात करते हुए रोंगटे खडे हो जाते हैं. रोमांच का एहसास होता है, क्यों कि जब एक पूरी फिल्म पंद्रह बीस दिनों में और पंद्रह बीस हजार रूपये में बन जाती थी उस जमाने में एकसौ साजिंदों के साथ संगीत सर्जन करने का साहस करना बहुत बडी बात थी. इन दोनों संगीतकारों को खुशकिस्मत समझने चाहिये क्यों कि एकसौ साजिंदे रखने का उन का प्रस्ताव बिना किसी झिझक के राज कपूरने स्वीकार किया था. राज कपूर जान चूके थे के यह दोनों कुछ नया करने का ख्वाब साकार करने जा रहे हैं.
इस संदर्भ में एक वाकया याद करना जरूरी है, फिल्म म्युझिक डायरेक्टर एसोसियेशन में जब नौशाद साहब अध्यक्ष थे तब एसोसियेशन की एक सभा में राज कपूरजी भी पहुंचे. नौशादजीने एतराज लेते हुए कहा, यह संगीतकारों की सभा है, फिल्म सर्जकों की नहीं. तब जयकिसन ने कहा, राजजी भी संगीत के मर्मी और अपने आप में अच्छे संगीतकार हैं. हमारे बहुत से हिट गीतों में इन का भी बहुत बडा प्रदान है. तब जाकर नौशादजीने राज कपूर को उस बैठक में उपस्थित रहनेकी इजाजत दे दी.
फिल्म संगीत से जुडे साजिंदों का एक वृन्द आाज भी कार्यरत है. 'स्वर आलाप' के नाम से बम्बई में काम कर रहा है. उन की एक स्मरणिका में एैसी दुर्लभ तसवीर प्रकाशित हुयी थी जिस में राज कपूर ढोलक बजा रहे हैं और दूसरे लोग बडे मौज से डान्स कर रहे हैं. शंकर जयकिसन ने जो तजुर्बे किये उस पर आज विहंगावलोकन करने पर ध्यान में आता है कि यह दोनों सांप्रत समय से कितने आगे थे. इन्हों ने जो काम किया उस की झलक देखने पर इस बात का खयाल आयेगा. सिर्फ एक मिसाल देता हुं. इन दोनों ने सदा सुहागिन रागिणी भैरवी में बहुत सारे गानें दिये. आप इन गानों को सुनिये, भैरवी में स्वरबद्ध हर एक गाना अपने आप में अनुठा है. एक भी गाने में दूसरे गाने का पुनरावर्तन या नक्कल नजर नहीं आयेगी. अब हम उन के संगीत सर्जन का आस्वाद गानों की खूबीओं के साथ करते रहेंगे. (क्रमशः)
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1931 में पहली बोलती फिल्म (टॉकी ) आयी तब से फिल्मों में गीत संगीत का प्रादुर्भाव हुआ. उन दिनों गीत-नृत्य का संगीत अलग और पार्श्वसंगीत अलग रहता था. पार्श्व संगीत द्रश्य के संवेदन को जीवित करता था. फिल्म के प्रमुख संगीतकार ही यह दोनों प्रकार के संगीत का उत्तरदायित्त्व सम्हालते थे. सूरों के शहनशाह शंकर जयकिसन ने राज कपूर की फिल्म बरसात से स्वतंत्र संगीतकार के रूप में पदार्पण किया तब और संगीतकार भी फिल्मों को अपने अपने संगीत से सजाते थे. संगीतकारों की पहली जोडी हुश्नलाल भगतराम.की थी. (भगतरामजी के बेटे अशोक शर्मा बाद में फिल्मों में जाने माने सितारवादक थे.) शंकर जयकिसन आये तब हुश्नलाल भगतराम के उपरांत संगीतकार सरस्वती देवी, मास्टर माधोलाल, गुलाम हैदर, विनोद, श्याम सुंदर, सज्जाद हुसैन, खेमचंद प्रकाश, नौशाद, अनिल बिश्वास और सी रामचंद्र भी कार्यरत थे. इन सभी का संगीत भी काफी लोकप्रिय साबित हो चूका था.
1934-35 में पहलीबार पार्श्वगायन का आरंभ हुआ. इसी बात को ध्यान में रखते हुए आगे बढें तो बोलपट शुरु होने के पहले एक डेढ दशक तक संगीत का स्वरूप ही अलग था. देश के अलग अलग राज्यों का लोकसंगीत, शास्त्रीय संगीत, हरेक भाषाके रंगमंच (नाटकों का) संगीत, रवीन्द्र संगीत और थोडा सा पाश्चात्य संगीत भी फिल्मों में परोसा गया था.
शंकर जयकिसन के आगमन पूर्व फिल्मो में पाश्चात्य संगीतका थोडा बहुत विनियोग अनिल बिश्वास ने किया था, जिसे हम शंकर जयकिसन के आगमन पूर्वे की प्रस्तावना कह सकते हैं सागर मूवीटोन में अनिल दाने जब एक गीत के लिये दस बारह साजिंदों की मांग की तब सागर के मेनेजर खफा हुए थे और बोले थे किसी की बारात निकालनी है क्या ? इतने सारे साजिंदे किस लिये चाहिये ? खर्चा कितना बढ जायेगा जानते हो ? यद्यपि, अनिल दाने उन की बातों को सुनी अनसुनी कर के अपने हिसाब से काम किया था. इस घटना को शंकर जयकिसन के आगमन पूर्वे की प्रस्तावना कहने का एक खास वजह है.
शंकर जयकिसन ने दस बारह नहीं, पूरे एकसौ साजिंदेां को लेकर काम शुरु किया था. इस तरफ उन्हों ने एक नया इतिहास रचा. यह परंपरा बाद में लक्ष्मीकांत प्यारेलाल ने भी अपनायी थी. आज यह बात करते हुए रोंगटे खडे हो जाते हैं. रोमांच का एहसास होता है, क्यों कि जब एक पूरी फिल्म पंद्रह बीस दिनों में और पंद्रह बीस हजार रूपये में बन जाती थी उस जमाने में एकसौ साजिंदों के साथ संगीत सर्जन करने का साहस करना बहुत बडी बात थी. इन दोनों संगीतकारों को खुशकिस्मत समझने चाहिये क्यों कि एकसौ साजिंदे रखने का उन का प्रस्ताव बिना किसी झिझक के राज कपूरने स्वीकार किया था. राज कपूर जान चूके थे के यह दोनों कुछ नया करने का ख्वाब साकार करने जा रहे हैं.
इस संदर्भ में एक वाकया याद करना जरूरी है, फिल्म म्युझिक डायरेक्टर एसोसियेशन में जब नौशाद साहब अध्यक्ष थे तब एसोसियेशन की एक सभा में राज कपूरजी भी पहुंचे. नौशादजीने एतराज लेते हुए कहा, यह संगीतकारों की सभा है, फिल्म सर्जकों की नहीं. तब जयकिसन ने कहा, राजजी भी संगीत के मर्मी और अपने आप में अच्छे संगीतकार हैं. हमारे बहुत से हिट गीतों में इन का भी बहुत बडा प्रदान है. तब जाकर नौशादजीने राज कपूर को उस बैठक में उपस्थित रहनेकी इजाजत दे दी.
फिल्म संगीत से जुडे साजिंदों का एक वृन्द आाज भी कार्यरत है. 'स्वर आलाप' के नाम से बम्बई में काम कर रहा है. उन की एक स्मरणिका में एैसी दुर्लभ तसवीर प्रकाशित हुयी थी जिस में राज कपूर ढोलक बजा रहे हैं और दूसरे लोग बडे मौज से डान्स कर रहे हैं. शंकर जयकिसन ने जो तजुर्बे किये उस पर आज विहंगावलोकन करने पर ध्यान में आता है कि यह दोनों सांप्रत समय से कितने आगे थे. इन्हों ने जो काम किया उस की झलक देखने पर इस बात का खयाल आयेगा. सिर्फ एक मिसाल देता हुं. इन दोनों ने सदा सुहागिन रागिणी भैरवी में बहुत सारे गानें दिये. आप इन गानों को सुनिये, भैरवी में स्वरबद्ध हर एक गाना अपने आप में अनुठा है. एक भी गाने में दूसरे गाने का पुनरावर्तन या नक्कल नजर नहीं आयेगी. अब हम उन के संगीत सर्जन का आस्वाद गानों की खूबीओं के साथ करते रहेंगे. (क्रमशः)
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