शंकर जयकिसन-24
आईये फिर से एक बार थोडे से मुखडों से आरंभ करें- आ जाओ तडपते हैं अरमां...( आवारा), आजा रे अब मेरा दिल पुकारा...(आह्), तु प्यार का सागर है... और बात बात में रूठो ना..(सीमा), याद न जाए बीते दिनों की.. और रुक जा रात ठहर जा रे चंदा... (दिल एक मंदिर), सौ साल पहले मुझे तुम से प्यार था... (जब प्यार किसी से होता है), दुनिया न भाय मोंहे अब तो बुला ले... (बसंत बहार), तेरी प्यारी प्यारी सूरत को... (ससुराल), अजी ऐसा मौका फिर कहां मिलेगा... (एन ईवनींग इन पेरिस), चाहे कोई मुझे जंगली कहे... (जंगली), आहा आई मिलन की बेला देशो आई... (आई मिलन की बेला).
इन सभी गीतों के संगीतकार शंकर जयकिसन हैं यह सुविदित है. लेकिन इस के अतिरिक्त और भी एक समानता इन सभी गीतों में हैं. भारतीय संगीत में आठ मात्रा का एक ताल है- कहरवा. धागीं नतीं नक धीन् जैसे उस के बोल हैं. पिछले अध्याय में मैंने आप से कहा था कि प्रत्येक ताल की विविध गतियां अर्थात् लय होता है. कभी धीमी गति में, कभी मध्यम गति में और कभी द्रुत गति में. जो मुखडे इस अध्याय के आरंभ में प्रस्तुत किये उसे गुनगुनाकर देखिये. हमारे फिल्म संगीत के स्वर्णयुग के सभी संगीतकारों ने इस ताल में अनेकविध गीत दिये हैं.
सभी संगीतकारों के प्रति पर्याप्त मान आदर के साथ मुझे कहना है कि कहरवा ताल में विविध तजुर्बे करने का आरंभ शंकर जयकिसन से हुआ. आ जाओ तडपते हैं अरमां अथवा आजा रे अब मेरा दिल पुकारा धीमी गति के कहरवा ताल में निबद्ध है तो आहा आई मिलन की बेला देखो गीत को द्रुत गति के कहरवा पर आधारित गीत कह सकते हैं. तु प्यार का सागर है और याद न जाए बीते दिनों की कहरवा के मध्य लय पर आधारित गीत हैं. अर्थात् शंकर जयकिसन ने कहरवा ताल के तीनों स्वरूप- विलंबित या धीमी गति, मध्य लय और द्रुत लय की आजमाईश की है और उस में आप कामियाब हुए.
और भी एक विशेषता इन सभी गीतों में आप महसूस कर सकते हैं. हरेक गीत के केन्द्वर्ती भाव को ध्यान में रखकर वाद्यों का उपयोग किया गया है. कहीं पर तबले बजते हैं तो कहीं पर मटकी और ढोलक बजते हैं, कहीं पर ड्रम है तो किसी गीत में बोंगो-कोंगो आजमाये हैं. ऐसा ही वैविध्य देशी-विदेशी वाद्यों के उपयोग में भी आप देख सकते हैं. गीत में जिस प्रकार के लयवाद्य की जरुरत थी ऐसा लयवाद्य आजमाया और गीत को सदाबहार बनाया. हम जानते हैं कि शंकरजी आला दरजे के तबलावादक थे इस लिये कौन से गीत में कौन सा लयवाद्य किस तरह उपयोग में लाया जाय यह बात शंकरजी तय करते थे और जयकिसन भी उन के साथ सहमत होता था.
आप चाहे किसी भी कलाकार के गीत को याद करो. दिलीप कुमार, राज कपूर, देव आनंद, धर्मेन्द्र, मनोज कुमार या राजेश खन्ना इन सभी के लिये कहरवा के विविध स्वरूप को आजमाया गया और सभी गीत हिट साबित हुए. इस का एक मतलब यह भी हुआ कि दर्शकों और श्रोताओं की पसंद-नापसंद को शंकर जयकिसन आबाद समज चूके थे.
और एक बात. प्रत्येक गीत के फिल्मांकन को देखिये और उस द्रश्य को यथार्थ रूप में गीत द्वारा पेश किया गया है यह बात भी आप महसूस करेंगे. मिसाल के तौर पर याद न जाए बीते दिनों की... के फिल्मांकन में कथानायक डॉक्टर धर्मेश (राजेन्द्र कुमार) अपनी महबूबा को याद कर के आंसु बहा रहे हैं यह भाव गीत की तर्ज और लय में भी हम महसूस करते हैं. बात बात में रूठो ना... गीत में रूठी हुयी नायिका को मनाने की कोशिश गीत में पायी जा सकती है.
इसी तरह विविध गीतों में आजमाये गये राग-रागिणी की बात भी हम करेंगें. पिछले अध्यायों में मैंने भैरवी में मिलन (बरसात में हम से मिले तुम सजन) और विरह (छोड गये बालम मोंहें... की बात की थी. आप को याद होगा. वैसे दूसरे राग-रागिणी पर आधारित गीतों की बात भी करेंगे.
लेकिन, एक और बात यहां करना मैं जरूरी समजता हुं. गीत में जरूरी भावोद्गार करने की कला जिस तरह एस डी बर्मन ने आशा भोंसले को सीखायी थी ऐसे बहुत प्रयोग शंकर जयकिसन पहले ही आजमा चूके थे. जैसे कि या...हु, याल्ला याल्ला.., सुकु सुकु..., अरे जाज्जा...इत्यादि.
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